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साधुसाध्वी
॥७५॥
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ऊंची नीची करके खंखेरे ३-४, फिर दूसरी वर पलटके "कामराग-स्नेहराग-दृष्टिराग परिहरु ३-७," ऐसा बोलता
आवश्यहुआ उस पसवाडेको देखकर तीन पुरिम करे ३-७, बाद मुहपत्ति दुप्पट करके दो अथवा तीन वधूटक की विचार करके (सल पाडके ) जीमणे हाथकी अंगुलियोंमें पकडकर “सुदेव-सुगुरु-सुधर्म आदरं ३-१०” बोलते । संग्रहः हुए दोनों जंघाओंके बीचमें लंबा किये हुए डावे हाथकी हथेली उपर तीन अक्खोडे (१) करके ३-१०४ " कुदेव-कुगुरु-कुधर्म परिहरु ३-१३ " कहते हुए तीन पक्खोडे (२) करे ३-१३, फिर " ज्ञान-दर्शन-3 चारित्र आदरं ३-१६” कहते हुए तीन अक्खोडे (३) करके " ज्ञानविराधना-दर्शनविराधना-चारित्रविरा-3 धना परिहाँ ३-१९ ” बोलते हुए तीन पक्खोडे करे, इसी तरह तीसरी वारभी “ मनोगुप्ति-वचनगुप्ति
(१)-हथेलीके मुहपत्तिका स्पर्श न होवे उस तरह ऊंची नीची खंडेरते हुए अंगुलियोंकी तरफसे पंजेकी तरफ मुहपत्ति लेजाना उस को 'अक्खोडे' कहतेहैं। (२)-हथेलीके मुहपत्तिका स्पर्श होवे वैसे पूंजते हुए पंजेकी तरफसे अंगुलियोंकी तरफ मुहपत्ति लेजाना, उसको पक्खोडे' कहते हैं। (३)-डाबे हाथकी अंगुलियों में जीमणे हाथकी तरफ पकडी हुई मुहपत्तिसे दोनों जंघाओंके बीच में लंबे किये हुए जीमणे हाथकी हथेली में "मानविराधना" आदि ९ बोल बोलते हुए ६ पक्खोडे और तीन अक्खोडे करने, ऐसा पांच पडिकमणेकी पुस्तकमें| तथा रत्नसागर आदिमें लिखाहै, परंतु प्रवचनसारोद्धारकी टीका तथा महोपाध्याय-श्रीमत्क्षमाकल्याणजी गणि रचित 'साधुविधिप्रकाश ॥ ७५॥ आदिमें नव अक्खोडे और नव पक्खोडे एकली डाबी हथेली परही करनेका लिखाहै इस वास्ते हमनेभी मुख्यपणेसे वह ही बात लिखीहै।
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पून
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