Book Title: Avashyakiya Vidhi Sangraha
Author(s): Labdhimuni, Buddhisagar
Publisher: Hindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalaya

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Page 76
________________ संग्रहा साधुसाध्वी वास्ते सव चीजें एक साथ वहरादूं इस उत्कंठासे अथवा इनको सचित्त भक्षणका दोष लगाउं ऐसी द्वेष बुद्धिसे । आवश्य ॥७२॥ अथवा विना खयालसे कल्पनीय और अकल्पनीय वस्तुओंको भेल सेल करके जो आहार गृहस्थ वहरावे और ऐसा ||कीय विचा भेल सेलवाला आहार साधु लेवे वह 'उन्मिश्र' दोष ७, जो फल-रस आदि अचित्त न हुए हों अथवा जिसके अनेक के मालिक हो उनमें से एक दो के परिणाम वहरानेके हुए हों लेकिन सबके परिणाम वहरानेके नहीं होवे तोभी है। । उन सबके सामने वहरानेके परिणाम वाले वहरावे, अथवा जो दो चार साधु साथमें गोचरी गये हो उनके है. सबके मनमें 'ये फलादिक अचित्त होगयेहें' ऐसा जचे विना जो फल-रस आदि लेवे वह अपरिणत' दोष ८, साधुके वास्ते दूध-दही-घी-शाक आदिमें हाथ तथा बरतन खरडे तथा शाक आदिका बरतन बिल्कुल खाली करके सब वस्तु साधुको बहरा देवे और साधु वहरलेवे वह 'लिप्त ' दोष , घी-दूध-दही आदिके छांटे डालते . हुए अथवा कोईभी आहार भूमि उर गिराते हुए वहरावे और साधु लेवे वह ' छर्दित ' दोष १०, इसतरह . ये दश दोष ग्रहणएषणाके होतेहैं, यानि साधुके वहरते हुए और गृहस्थके वहाराते हुए ये १० दोष लगते हैं। अब ग्रासैषणा ( मंडली ) के पांच दोष. जो कि आहार-पाणी करते समय लगतेहें. वे बतातेहे ॥७२॥ Jain Education Internal 1010 05 For Private & Personal use only ainelibrary.org

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