Book Title: Astha ki aur Badhte Kadam
Author(s): Purushottam Jain, Ravindar Jain
Publisher: 26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti

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Page 15
________________ = आस्था की ओर बढ़ते कदम है। इसका पृथक् वर्णन या उल्लेख सर्वत्र न भी हुआ हो पर इसके अमृत से ही जैन साहित्य का रसायन सिद्ध हुआ है। सम्यकूज्ञान : जो वस्तु जैसी है उसका उसी रूप में ऐसा ज्ञान सम्यक्ज्ञान है जो न कम हो न अतिरिक्त, न विपरीत हो न संदिग्ध। जैन न्याय में प्रमाण की परिभाषा ही सम्यज्ञान के रूप में दी गयी है। ज्ञान का विषय. वस्तुतः केवल मात्र स्वात्मा ही है, जिसे अपने आत्मा का ज्ञान है उसे तीनों लोंकों के तीनों कालों के सभी द्रव्यों के प्रत्येक गुण और प्रत्येक पर्याय का ज्ञान होता है। इस गूढ़ किन्तु तर्कसंगत व्याख्या का एक व्यवाहारिक पक्ष भी है। आत्म-द्रव्य स्वभाव से इतना निर्मल है कि जब वह पूर्णतया निष्कर्ष हो जाता है तव उसमें तीनों लोकों का कण कण दर्पणवत् प्रतिबिम्बत होने लगता है। यह प्रतिबिम्बन ही ज्ञान की व्यापकता का सूचक है, अन्यथा वह इतना आत्म-केनद्रत है कि एक ज्ञानवान्, स्वात्मा के अतिरिक्त कुछ नहीं है यह कह कर भी यथार्थ रह सकता है। सम्यकज्ञानी का व्यवहार भी सम्यक् ही होता है। चाहे उसमें आलोकिक या अतिरिक्त तत्व न हों। सम्यज्ञान चूंकि सम्यक्दर्शन पूर्वक ही होता है अतः एक सम्यज्ञानी उत्कृष्ट कोटि का विवेकशील होता है। विवेक ही वह वस्तु है जो उसके व्यवहार को सम्यक् और असाधारण वनाती है किसी भी क्रिया की कर्तव्यता या अकर्तव्यता का निर्धारण इसी विवेक या भेद-विज्ञान के द्वारा होता है। खरे और खोटे में अन्तर भी विवेक से ही संभव है। करोडों वर्ष तप करके भी जो सफलता न मिल सके वह एक ज्ञानी पुरूष अपने विवेकपूर्ण प्रयोग से क्षण भर में प्राप्त कर सकता है। सांसारिक व्यवहार में समान रूप से उलझा एक मिथ्याज्ञानी

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