Book Title: Astha ki aur Badhte Kadam
Author(s): Purushottam Jain, Ravindar Jain
Publisher: 26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti

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Page 14
________________ आस्था की ओर बढ़ते कदम सम्यकदृष्टि जीव वरदान अथवा किसी सुख सुविधा की आकांक्षा से देव - देवियों की उपासना नहीं करता क्योंकि वे राग द्वेष से अतीत नहीं होते । आरम्भ, परिग्रह, हिंसा आदि में पड़कर संसारिक चक्र में उलझे तथाकथित साधुओं को मान्यता नहीं देता । निरभिमानी अवश्य होता है अपने ज्ञान, आदर, सम्मान, कुल, जाति, वल, ऋद्धि, तप और शरीर की कितनी भी श्रेष्ठता रहे, वह नम्र ही रहता है क्योंकि वह अनुभव करता है कि अभिमान में आकर जो व्यक्ति अन्य धर्मावलंबियों का तिरस्कार करता है, वह अपने ही धर्म का उल्लंघन करता है। सम्यक्दर्शन जीव की आन्तरिक और बाह्य क्रियाओं में एक ऐसा मोड़ लाता है कि वह आत्म - बाह्य पदार्थों से इतना निर्लिप्त हो जाता है कि चरित्र के लेशमात्र न रहते हुए भी वह मोक्षमार्गी माना जाता है जबकि आत्म-वाह्य पदार्थों में लिप्त होने वाला साधु भी अपने सम्पूर्ण चारित्र के रहते हुए भी मोक्षमागी नहीं माना जा सकता । इस विवेचन से स्पष्ट है कि समयक्दर्शन अपने आन्तरिक और बाह्य दोनों रूपों में जीवन मूल्यों को प्रत्यक्ष पोषण देता है। कहा तो यह भी जा सकता है कि वह इनका उद्गम ही है। ज्ञान और चरित्र तभी सम्यक् होते हैं जव वे सम्यक्दर्शन पूर्वक हों। इसका अर्थ यह हुआ कि जनसाधारण के भी व्यवहार में मूल्यों का समावेश सम्यक्दर्शन के सद्भाव से ही सम्भव है। सम्यग्दर्शन से जिन मनोभावों और वाह्य व्यवहार की निष्पति होती है, वे सभी किसी भी सम्भ्रान्त नागरिक के लिए आदर्श होने चाहिए । अन्य सम्पूर्ण जैन साहित्य की ही भांति सम्यक्दर्शन को वही स्थान प्राप्त है जो शरीर में आत्मा का 8

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