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अष्ट पाहुड़storate
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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और दूसरी अध्यात्मरूप। जहाँ सामान्य-विशेष स्वरूप से सब पदार्थों का प्ररूपण किया जाता है सो तो आगम रूप है परन्तु जहाँ एक आत्मा ही के आश्रय निरूपण किया जाता है सो अध्यात्म है तथा अहेतुमत् और हेतुमत्-ऐसे भी दो प्रकार हैं। वहाँ जो सर्वज्ञ की आज्ञा ही से केवल प्रमाणता मानी जाती है सो अहेतुमत् है और जहाँ प्रमाण एवं नयों के द्वारा वस्तु की निर्बाध सिद्धि जिसमें करके मानी जाती है सो हेतुमत् है।
ऐसे दो प्रकार के आगम में निश्चय-व्यवहार से व्याख्या जैसी है सो कुछ लिखते हैं। जब आगम रूप सब पदार्थों के व्याख्यान पर लगाते हैं तब तो वस्तु का स्वरूप सामान्य-विशेष रूप अनन्त धर्मस्वरूप है सो ज्ञानगम्य है। उनमें सामान्य रूप तो निश्चय का विषय है और विशेष रूप जितने हैं उनको भेद रूप करके भिन्न-भिन्न कहे वह व्यवहार नयका विषय है, उसको द्रव्यपर्याय स्वरूप भी कहते हैं।
जिस वस्तु को विवक्षित करके सिद्ध करें उसके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से जो कुछ सामान्य-विशेष रूप वस्तु का सर्वस्व हो सो तो निश्चय–व्यवहार से जैसे कहा है वैसे सधता है और उस वस्तु की कुछ अन्य वस्तु के संयोग रूप अवस्था हो उसको उस वस्तु रूप कहना सो भी व्यवहार है उसको 'उपचार' ऐसे भी नाम से कहते हैं।
इसका उदाहरण ऐसा है-जैसे एक विवक्षित घट नामक वस्तु पर लगावें तब जिस घट का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप सामान्य-विशेष रूप जितना सर्वस्व है उतना कहा वैसे निश्चय-व्यवहार से कहना वह तो निश्चय–व्यवहार है और घट के कुछ अन्य वस्तु के लेप से उस घट को उस नाम से कहना तथा अन्य पटादि में घट का आरोपण करके घट कहना सो व्यवहार है।
व्यवहार के दो आश्रय हैं-एक प्रयोजन, दूसरा निमित्त। सो कुछ प्रयोजन साधने को किसी वस्तु को घट कहना वह तो प्रयोजनाश्रित है और किसी अन्य वस्तु के निमित्त से घट में जो अवस्था हुई उसको घट रूप कहना वह निमिताश्रित है। इस प्रकार विवक्षित सर्व जीव-अजीव आदि वस्तुओं पर लगाना।
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