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अष्ट पाहुड़
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वामी विरचित
आचाय कुन्दकुन्द
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मोक्ष नहीं है क्योंकि वे कई तो हिंसक हैं और कई विषयासक्त हैं-मोही हैं अतः उनके धर्म कैसा तथा अर्थ और काम की उनके वांछा पाई जाती है अतः उनके अर्थ व काम कैसा तथा वे जन्म, मरण से सहित हैं अतः उनके मोक्ष कैसा ! इस प्रकार देव सच्चे जिनदेव ही हैं और वे ही भव्य जीवों के मनोरथ पूर्ण करते हैं, अन्य सब देव कल्पित हैं। ऐसे "देव' का स्वरूप कहा।।२५।।
उत्थानिका
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आगे 'तीर्थ' का स्वरूप कहते हैं :वयसम्मत्तविसुद्ध पंचिंदियसंजदे णिरावेक्खे। हाएउ मुणी तित्थे दिक्खासिक्खासुण्हाणेण ।। २६ ।। सम्यक्त्व-व्रत से शुद्ध, इन्द्रियसंयमी, निरपेक्ष जो। उस तीर्थ में दीक्षा-सुशिक्षा, स्नान से मुनि हों विमल । ।२६ ।।
अर्थ व्रत, सम्यक्त्व से विशुद्ध, पाँच इन्द्रियों से 'संयत' अर्थात् संवर सहित तथा निरपेक्ष अर्थात् ख्याति, लाभ, पूजादि रूप इस लोक के फल की तथा परलोक में स्वर्गादि के भोगों की अपेक्षा से रहित-ऐसे आत्मस्वरूप रूप तीर्थ में मुनि है सो दीक्षा-शिक्षा रूप स्नान से पवित्र होओ।
भावार्थ १. तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण सम्यक्त्व सहित, २. पाँच महाव्रतों से शुद्ध, ३. पाँच इन्द्रियों के विषयों से विरक्त और ४. इहलोक-परलोक के विषयभोगों की वांछा से रहित-ऐसे निर्मल आत्मा के भाव रूप तीर्थ में स्नान करके पवित्र होओ-ऐसी प्रेरणा है।।२६।।
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