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अष्ट पाहुड़ .
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स्वामी विरचित ।
आचार्य कुन्दकुन्द
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स्वभाव भाव है और परमाणु से स्कंध होना, एक स्कंध से अन्य स्कंध होना तथा जीव के भाव के निमित्त से कर्म रूप होना विभाव भाव हैं-इस प्रकार इनमें परस्पर निमित्त-नैमित्तिक भाव प्रवर्तता है।
इनमें पुद्गल तो क्योंकि जड़ है अतः उसे नैमितिक भाव से कुछ सुख-दुःख आदि नहीं होता परन्तु जीव चेतन है अतः उसमें पुद्गल के निमित्त से जो भाव होते हैं उनसे उसे सुख-दुःख आदि प्रवर्तता है इसलिए जीव को स्वभाव भाव रूप रहने का और नैमित्तिक भाव रूप न प्रवर्तने का उपदेश है। पुनश्च जीव के पुद्गल कर्म के संयोग से देहादि द्रव्य का जो सम्बन्ध है उस बाह्य रूप को द्रव्य कहते हैं और भाव से द्रव्य की प्रव त्ति होती है। द्रव्य और भाव का ऐसा स्वरूप जानकर जो स्वभाव में प्रवर्ते और विभाव में न प्रवर्ते उसे परमानंद सुख होता है तथा जो विभाव अर्थात् राग-द्वेष-मोह रूप प्रवर्ते उसके संसार से सम्बन्धित दुःख होता है। और जो द्रव्य रूप है सो पुद्गल का विभाव है उससे सम्बन्धित जीव को जो दुःख-सुख होता है उसमें भाव ही प्रधान है, यदि ऐसा न हो तो केवली भगवान को भी सांसारिक सुख-दुःख की प्राप्ति का प्रसंग आवे परन्तु ऐसा है नहीं।
इस प्रकार जीव के तो ज्ञान-दर्शन स्वभाव और राग-द्वेष-मोह विभाव हैं और पुद्गल के स्पर्शादि स्वभाव और स्कंधादि विभाव हैं, इनमें जीव का हित-अहित भाव ही प्रधान है, पुदगल द्रव्य से सम्बन्धित भाव प्रधान नहीं है। बाह्य द्रव्य निमित्त मात्र है परन्तु उपादान के बिना निमित्त कुछ करता नहीं है। यह तो सामान्य रूप से स्वभाव-विभाव का स्वरूप है तथा इसी का विशेष जो सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप जीव के स्वभाव भाव हैं, उनमें सम्यग्दर्शन भाव प्रधान है, उसके बिना सब बाह्य-अभ्यन्तर क्रिया मिथ्या दर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं जो कि विभाव हैं और संसार की कारण हैं-ऐसा जानना ।।२।।
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टि0-1. इन पंक्तियों में उपादान-निमित्त सम्बन्धी वस्तु व्यवस्था का सम्यक् विवेचन है। निमित्त की
निमित्तवत् स्वीकृति करते हुए जहाँ उसके कतत्व का निराकरण है वहाँ उपादान कारण की मुख्यता स्थापित की गई है कि उसके बिना निमित्त कुछ भी नहीं करता।
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