Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

View full book text
Previous | Next

Page 607
________________ अष्ट पाहुड areate स्वामी विरचित o आचार्य कुन्दकुन्द ADOOD SARAMMU HDOOT ADOG/R MAMAYA WANAMANAS Dod Dog/ HDool 戀戀养养%崇崇明藥崇崇崇泰拳事業事業事業事業事業事業助兼第 आगे कहते हैं कि 'सुन्दर रूप आदि सामग्री पावे परन्तु शील रहित हो तो उसका मनुष्य जन्म निरर्थक है' :रूवसिरिगव्विदाणं जुव्वण लावण्ण कांतिकलिदाणं। सीलगुणवज्जिदाणं णिरत्थयं माणुसं जम्म।। १५ ।। हैं रूप, श्री गर्वित अरु लावण्य, यौवन, कान्तियुत । पर शीलगुण वर्जित उन्हों का, जन्म मानव निरर्थक ।।१५।। अर्थ जो पुरुष यौवन अवस्था सहित हैं, बहुतों को प्रिय लगे ऐसे लावण्य सहित हैं और शरीर की काति-प्रभा से मंडित हैं परन्तु सुन्दर रूप और लक्ष्मी सम्पदा से गर्वित हैं. मदोन्मत हैं और शील व गुणों से रहित हैं उनका मनुष्य जन्म निरर्थक है।। भावार्थ मनुष्य जन्म पा करके यदि शील रहित रहें, विषयों में आसक्त रहें, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र जो गुण उनसे रहित रहें और यौवन अवस्था में शरीर की लावण्यता, कांति, सुन्दर रूप व धन-सम्पदा आदि पाकर उनके गर्व से मदोन्मत्त रहें तो उन्होंने मनुष्य जन्म निष्फल खोया। मनुष्य जन्म तो सम्यग्दर्शनादि को अंगीकार करने और शील संयम के पालने योग्य था सो अंगीकार नहीं किया तब निष्फल गया ही कहलाएगा। तथा ऐसा भी बताया है कि 'पहली गाथा में कुमत, कुशास्त्र की प्रशंसा करने वाले के ज्ञान को मिथ्या कहते हुए निरर्थक कहा था वैसे ही यहाँ रूपादि का मद करे तो यह भी मिथ्यात्व का चिन्ह है, जो भी मद करे उसे मिथ्याद ष्टि ही जानना तथा लक्ष्मी, रूप, यौवन और कांति से मंडित हो परन्तु शील रहित व्यभिचारी हो तो उसकी लोक में भी निंदा ही होती है' ।।१५।। 崇崇崇崇崇崇崇崇崇崇勇攀樂事業事業蒸蒸男崇勇樂 崇崇崇明崇崇明崇明崇勇兼業助業崇勇崇勇崇明 ८-१६.

Loading...

Page Navigation
1 ... 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638