Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

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Page 636
________________ 9. विसयविसपरिहया णं भमंति संसारकांतारे ।। २२ ।। अर्थ-विषय रूपी विष से हते गये जीव संसार रूपी वन में भ्रमण करते हैं । १०. देवेसु वि दोहग्गं लहंति विसयासत्ता जीवा ।। २३ ।। अर्थ-विषयासक्त जीव देवों में भी उत्पन्न हों तो वहाँ भी दुर्भाग्यपने को पाते हैं । ११. तवसीलमंत कुसली खवंति विसयं विसय व खलं ।। २४ ।। अर्थ-तप और शीलवान कुशल पुरुष विषयों को खल के समान तुच्छ समझकर दूर फैंक देते हैं। १२. अंगेसु य पप्पेसु य सव्वेसु य उत्तमं सीलं ।। २५ ।। अर्थ-मनुष्य के शरीर में सब अंगों के यथास्थान प्राप्त होने पर भी सबमें उत्तम अंग शील ही है अर्थात् शील न हो तो सब ही अंग शोभा नहीं पाते। १३. जाए विसयविरत्तो सो गमयदि णरयवेयणा पउरा ।। ३२ ।। अर्थ-विषयों से विरक्त जीव नरक की प्रचुर वेदना को भी गंवाता है अर्थात् वहाँ भी अति दुःखी नहीं होता । १४. तवविणयसीलसहिदा सिद्धा सिद्धिं गदिं पत्ता ।। ३५ ।। अर्थ-तप, विनय और शील से सहित जो जीव हैं वे सिद्धिगति को प्राप्त होकर सिद्ध कहलाते हैं । १५. सम्मत्तदंसणेण य लहंति जिणसासणे बोहिं ।। ३७ ।। अर्थ- सम्यग्दर्शन से जिनशासन में जीव को बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति होती है। १६. सीलसलिलेण ण्हादा ते सिद्धालयसुहं जंति।। ३8।। अर्थ-जो शील रूपी जल से स्नान कर चुके हैं वे सिद्धालय के सुख को प्राप्त होते हैं। १७. सीलं विसयविरागो ।। ४० ।। अर्थ-विषयों से ज्ञान भी यह ही है और कहा गया है ! शील बिना अज्ञान है। 5-85 गाणं पुण केरिसं भणियं ! विरक्त होना शील है और इससे भिन्न ज्ञान कैसा तो ज्ञान मिथ्याज्ञान रूप

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