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अष्ट पाहुड
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स्वामी विरचित
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• आचार्य कुन्दकुन्द
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आगे कहते हैं कि 'इस शील से निर्वाण होता है उसका बहुत प्रकार से वर्णन
किया है सो कैसे? उसका कहना इस प्रकार है :सम्मत्त णाण दंसण तव वीरिय पंचयारमप्पाणं। जलणो पि पवणसहिदो डहंति पोराणयं कम्म।। ३४।।
आत्माश्रयी सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, तप, बल आचरण। वायूसहित अग्नि के सम, दहते पुरातन कर्म को ।।३४ ।।
अर्थ सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन तप एवं वीर्य-ये जो पाँच आचार हैं वे आत्मा का आश्रय पाकर पुरातन कर्मों को वैसे ही दग्ध करते हैं जैसे अग्नि है सो पवन सहित होकर पुराने सूखे ईंधन को दग्ध कर देती है।
भावार्थ यहाँ सम्यक्त्व आदि पाँच आचार तो अग्निस्थानीय हैं और आत्मा का जो शुद्ध स्वभाव जिसे शील कहते हैं पवनस्थानीय है सो पंच आचार रूप अग्नि शील रूप पवन की सहायता पाकर पुराने कर्मबंध को जला करके आत्मा को शुद्ध कर देती है-इस प्रकार शील ही प्रधान है। पाँच आचार में तो चारित्र कहा है और यहाँ सम्यक्त्व कहा सो सम्यक्त्व कहने में चारित्र ही जानना, विरोध न जानना।।३४।।
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आगे कहते हैं कि 'इस प्रकार अष्ट कर्मों को जिन्होंने दग्ध किया वे सिद्ध हो
गये' :
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