Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

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Page 630
________________ 專業業業業業業業業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द अन्य वस्तु ● अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित अर्थ के साथ रमण करके जो निज (शील) भाव का भंग करते हैं उनके कुशील भाव वर्तता है ऐसा हिरण चिन्ह धारी शांतिनाथ भगवान ने कहा है। इस भाव को मुनिराज निजस्वरूप शुद्ध जल को प्राप्त करके छोड़ देते है और कर्म रूपी रज को धोकर सिद्ध होकर अत्यधिक सुख और बल को प्राप्त कर लेते हैं। यह निश्चय शील तो आत्ममय और व्यवहार शील स्त्री का त्याग रूप है इन्हें मैं नमस्कार करता हूँ और जो इन दोनों को सब प्रकार से पालन करते हैं उनको नमस्कार करता हूँ जिससे कि इस संसार में फिर जन्म न पाऊँ।।१।। दोहा नमूं पंच पद ब्रह्ममय, मंगल रूप अनूप । उत्तम शरण सदा लहूं, फिरि न परूं भवकूप । । २ ।। दोहा अर्थ मंगल रूप और अनुपम आत्ममय पंच पद को नमस्कार करता हूँ कि उनकी उत्तम शरण मैं सदा प्राप्त करूं । तथा फिर संसार रूपी कुएं में ना गिरूं । । २ । । वचनिकाकार की प्रशस्ति ऐसे श्री कुन्दकुन्द आचार्यक त प्राक त गाथाबद्ध जो पाहुड़ ग्रंथ हैं उनमें ये आठ पाहुड़ हैं जिनकी ये देशभाषामय वचनिका लिखी है। वहाँ छह पाहुड़ की जो टीका टिप्पण है, उनमें टीका तो श्रुतसागर क त है और टिप्पण पहले किसी और ने किया है। उनमें कई गाथा का पाठ तथा अर्थ तो अन्य-अन्य प्रकार है, वहाँ मेरे विचार में आया वैसे उनका आश्रय भी लिया है और जैसा अर्थ मुझे प्रतिभासित हुआ वैसा लिखा है तथा लिंगपाहुड़ और शीलपाहुड़ इन दोनों पाहुड़ का टीका-टिप्पण मिला नहीं इसलिए गाथा का अर्थ जैसा प्रतिभास में आया वैसा लिखा है और श्रुतसागर क त टीका षट्पाहुड़ की है उसमे ग्रंथातर की साक्षी आदि कथन बहुत है सो उस टीका की वचनिका यह नहीं है, गाथाओं की अर्थ मात्र वचनिका करके भावार्थ मैंने मेरे प्रतिभास में जैसा आया वैसा गाथा के अनुसार लेकर लिखा और प्राक त व्याकरण आदि का ज्ञान मुझमें विशेष है नहीं इसलिए कहीं व्याकरण से तथा आगम से शब्द और अर्थ अपभ्रंश हुआ हो वहाँ बुद्धिमान पण्डित मूल ग्रन्थ विचार कर शुद्ध करके बांचना, पढ़ना 卐卐卐卐業卐業業卐 और मुझको अल्पबुद्धि जानकर हास्य मत करना, क्षमा ही करना, सत्पुरुषों का 專業版 ८-४२ 【卐卐

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