Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

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Page 629
________________ अष्ट पाहुड़ ) स्वामी विरचित Doc/NIA • आचार्य कुन्दकुन्द ADOOD SARAMAVAN Door Dog TOMJANA W.V.W WAS RECE 樂樂养出濡养樂崇崇崇泰拳$樂樂樂事業業男男戀男 हुई तथा जब सम्यक्त्व होता है तब विषयों से विरक्त होता ही होता है, यदि विरक्त न हो तो संसार-मोक्ष का स्वरूप क्या जाना-इस प्रकार सम्यक्त्व व शील होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान नाम पाता है। ऐसे इस सम्यक्त्व और शील के सम्बंध से ज्ञान की तथा शास्त्र की बड़ाई है। इस प्रकार यह जिनागम है सो संसार से निव त्ति कराके मोक्ष प्राप्त कराने वाला है सो जयवन्त हो। तथा यह सम्यक्त्व सहित ज्ञान की महिमा है सो ही अंतमंगल जानना' ।।४०।। इसका संक्षेप तो कहते आये कि 'शील नाम स्वभाव का है सो आत्मा का स्वभाव शुद्ध ज्ञानदर्शनमयी चेतना रूप है, वह अनादि कर्म के संयोग से विभाव रूप परिणमता है, उसके विशेष मिथ्यात्व एवं कषाय आदि अनेक हैं, उनको राग-द्वेष-मोह भी कहते हैं, उनके भेद संक्षेप से चौरासी लाख किये हैं, विस्तार से संख्यात, असंख्यात और अनंत होते हैं, इनको कुशील कहते हैं, उनका अभाव रूप संक्षेप से चौरासी लाख उत्तर गुण हैं जिनको शील कहते हैं-यह तो सामान्य परद्रव्य के सम्बन्ध की अपेक्षा शील-कुशील का अर्थ है तथा प्रसिद्ध व्यवहार अपेक्षा स्त्री के संग की अपेक्षा कुशील के अठारह हजार भेद कहे हैं जिनके अभाव से शील के अठारह हजार भेद हैं, इनको जिनागम से जानकर पालना। लोक में भी शील की महिमा प्रसिद्ध है, उसको जो पालते हैं वे स्वर्ग-मोक्ष के सुख पाते हैं, उनको हमारा नमस्कार है, वे हमारे भी शील की प्राप्ति करो-यह प्रार्थना है। 崇崇崇崇崇崇崇崇崇崇勇攀樂事業事業蒸蒸男崇勇樂 छप्पय आन वस्तु के संग राचि, निज भाव भंग करि। वरतै ताहि कुशील भाव, भाषै कुरंग धुरि।। ताहि तर्जें मुनिराय पाय, निज रूप शुद्ध जल। धोय कर्म रज होय सिद्ध, पावै सुख अति बल।। यह निश्चय शील सुब्रह्ममय, व्यवहारै तिय तज नमैं | जे पालै सब विधि तिनि नमूं,पाऊँ जिम भव न जनमैं ।। १।। 禁禁禁禁禁禁藥騰崇崇崇崇勇兼業助

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