Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

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Page 627
________________ अष्ट पाहुड़aar स्वामी विरचित o आचार्य कुन्दकुन्द HDOON ADOOD Des SARAMVA ADOG/R MAMAYA WANAMANAS HDool आगे अंतसमय में सल्लेखना करना कहा है वहाँ दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप-इन चार आराधनाओं का उपदेश है सो वे शील ही से प्रकट होती हैं इसको प्रकट करके कहते हैं :सव्वगुणखीणकम्मा सुहदुहविवज्जिदा मणविसुद्धा। पप्फोडिदकम्मरया हवंति आराहणा पयडा।। ३9।। जो सर्वगुण से क्षीणकर्म, विशुद्धमन, सुख-दुःख रहित । उड़े कर्मरज उनकी अरू, आराधना होवे प्रकट ।।३9 ।। अर्थ 戀戀养养%崇崇明藥崇崇崇泰拳事業事業事業事業事業事業助兼第 सर्व गुण जो मूल-उत्तर गुण उनसे जिसमें कर्म क्षीण हो गए हैं तथा सुख दुःख से जो रहित हैं तथा जिसमें मन विशुद्ध है और जिसने कर्म रज को उड़ा दिया है- ऐसी आराधना प्रकट होती हैं। भावार्थ __ पहले तो सम्यग्दर्शन सहित मूलगुण एवं उत्तरगुणों से कर्मों की निर्जरा होने से कर्म की स्थिति-अनुभाग क्षीण होता है, पीछे विषयों के द्वारा जो कुछ सुख दुःख होता था उससे रहित होते हैं, पीछे ध्यान में स्थित होकर श्रेणी चढ़ते हैं तो उपयोग विशुद्ध हो, कषायों का उदय अव्यक्त हो जाता है, सुख-दुःख की वेदना मिटती है तत्पश्चात् मन विशुद्ध होकर क्षयोपशम ज्ञान के द्वारा जो कुछ ज्ञेय से ज्ञेयांतर होने का विकल्प होता है वह मिटकर 'एकत्व वितर्क अवीचार' नामक का शुक्ल ध्यान बारहवें गुणस्थान के अंत में होता है-यह मन का विकल्प मिटकर विशुद्ध होना है। पीछे घातिकर्म का नाश होकर जो अनंत चतुष्टय प्रकट होता है-यह कर्मरज का उड़ना है इस प्रकार आराधना की सम्पूर्णता प्रकट होती है। जो चरमशरीरी हैं उनके तो इस प्रकार आराधना प्रकट होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है तथा अन्य के आराधना का एकदेश होता है, अंत में उसका आराधन करके स्वर्ग को पाकर वहाँ सागरों पर्यंत सुख भोग वहाँ से चयकर मनुष्य हो आराधना को 崇崇崇崇崇崇崇崇崇崇勇攀樂事業事業蒸蒸男崇勇樂 ८.३९ 明崇明崇明藥業樂業、 崇明藥業業助業坊業 भार

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