Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

View full book text
Previous | Next

Page 546
________________ गाथा चित्रावली TRAN Rive शत-दारित को कृषि RPOSES मा कार्य नसभाको चिप अम्मी मापक चिप MENT ANTER का कांश समयमा सक्सrathi, संपनमguकाजीक मोटर मग मन Harpati , कोलीविया काली कामका Evaluमलको MARWARIYAR सोशलटर समोसा जान बाधनमा Palestोलनको समाजमोकारो मामा uurti समारोक्तिीला Khatuwarira raturaltate Aarutodो.मारीNOmg ter mishant.antariately समwtarjee ममेयरमा कामratishivarमाम RAANATAwest जसमाजम InMala.मनाया सोश्यावस्थामा मुश्मिीरमोनियमों कारगिल परमारे सारे वारसा मोजायाwarwwनि रोमन जको अन्नमा रोष एभा संप सोनाम पERS SAMIRENTरावतममकाकरमाकरमत्ता चकर antihar radसनि नियम मन मन Snap mmm अERVामला संभावोजनाम-समदर hोमोपी सोमबागीबोकमरेकाstuarted लामाकोरमारेको Akaltawariyand r iNTraivate Aarsutraordetoसीलो माता tattrawinlodantariateीसमwstagrjee मशरोलमfeet मेरिका म rathisiwanाम RANAYe a ranMalad.मनपरी सोना स्थान माथिलीय मोराचिरगामी मम र मिनालयामारेको मwिa warwhen कर antuyeमोन जहों अस्स.मा unthanो एमापसी क्रममा एRREN7 महीजरीपाद Atarwa का WTHI म कर स...मला भोकर Mait पिपरामराम m सनि नोएका म MER म EिNSE PHemiumRAANEE अ VAENER काrt-खमल REE जिसने परद्रव्ये गाथा का त्याग करके १-३० तथा कर्मों का नाश करके ज्ञानमयी आत्मा को पा लिया उसदेवके लिए मेरा नमस्कार ही। मोन्पामा अनन्नव श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन से युक्त,कुर्म मतसे रहित औरहस्कृष्ट पदकधारीदेवको में नमस्कार करके परम योगियों के लिए उस परमात्मा का कथन करूंगनिसे जानकर योगी ध्यान में स्थित हो निरंतर उसका अनुभव करते हुएबाधारहित,आवनाशी व अनुपम 'निर्वाण को प्राप्त करते हैं। गाथा र वह आत्मा परमात्मा अन्तरात्मा और बहिरामा के भेदसे तेन प्रकारका है।इनमें से बहिरामाको छोड़कर उन्तरात्मा के उपाय से परमाहमा का ध्यान करना चाहिरराष स्पर्शनादि इन्द्रियाँ तो बहिरामा है, अन्तरंग में आत्मा का प्रगट अनुभवोपर संकल्प अन्तरात्मा है औरकर्म सपकलंक से रहित आत्मा परमात्मा है और वही देव । कर्ममल रहित , सरीर रहित, अनिन्द्रिय अर्थात् इन्द्रिय रहित अथवा अनिंदित अधात सर्वप्रकार प्रयांसायोग्य, केवलज्ञानमयी,विशुतात्मा, परमेष्ठी परमविन, जीवों के कल्याम अक्वा निर्वाण को करने वाला,शापवत और सिह परमामा है।हामन,वचमकाय से बहिनामा में मोड़कर अन्तरामा का अपय लेकर परमात्मा का ध्यान करना चाहिए-ऐसा बिनवरेन्द्र ने उपदेश दिया है।वा बार पदार्यों में ही बिसका मन सुरायमान है और इन्दिय स्पीद्वार के द्वारा लो अपने स्वरूप से च्युत है-ऐसा मुद्दाष्ट वहिरामा अपने शरीरको ही आलाजमता मिष्याटि नीव अपने शरीर के समान दूसरे के शरीर को देखकर, यह देह अचेतन है पिरभी मिध्याभाव से आत्मभाव से ग्रहण करके बड़े कलसे दूसरे की आत्मा रूप ध्याता है,मानता है। ऐसे देहेमें हीख-पर की आत्माका निश्चय करने से और पदार्थो के स्वरूप को नहीं जानने से मनुष्यों के मा-दारादि बाह्यजीवों में मोह वर्तता है। यह मनुष्य मोह के उदय से मिष्यजान में लीन हुआ और मिथ्याभाव से भावित होता हुआ फिरभी शरीर को माला माना है जो देह से निरपेक्ष है ,रागद्वेषादि द्वन्द से रहित है,ममत्व तथा आरंभ से रहिरहे और निज आत्मस्वभाव में सुरत वह योगी निर्माण को प्राप्त होता है जो मुनि अपनी आत्मा में रस है वह नियम से सम्माधि है और वही सम्यक्त्व भावरूप परिष्का हुआईएआठ कों को नष्ट करता है।लो साधु परद्रय में रस है वह मियादृष्टि होता है और नियाच सप परिणत हुआ वह दुष्प अठकों से बंधता है। आत्मस्वभाव से अन्य जो कुछ सचित्त, अतित और मिनद्रव्य है वह सब परद्रव्य है- ऐसा पदार्थो का सत्यार्थ स्वरूप सर्वदर्शियों ने कहा है / दुष्ट आठ कर्मों से रहित, अनुपम, ज्ञानशरीरी, निय और शुद्ध जो आत्मद्रव्य है उसे जिनेन्द्र भगवान ने स्वद्रव्य कहा है। बाजी मुनि परदथ्यों से पराङ्मुख हुए निज आमदय कोध्याते हैं, वे निदेपिचारित्रयुक्त होते हए जिनवर तीर्थकरों के मार्ग में लगे रहकर निर्माण को पाते हैं। योगी मुनि जिनवर भगवान के मत से शुद्ध आत्मा को ध्यान में ध्यान है और उससे निर्माणको पाता है तो उससे क्या स्वर्गलेक को नहीं पाएगा ? पाएगा ही ॥२०॥ जो पुरुष बड़ा भार लेकर स्क दिन में सौ योजन जाता है वह क्या पृथ्वीतलपर आधा मोस भी नहीं जा सका अवश्य ही जा सकता है ॥२॥ जो कोई सूभट संग्राम में सब ही संग्राम करने वालों कर सूहित करोड़ों नरों की सुगमता से जीनना है वह सुभट क्या एक नर को नहीं जीतेगा ? जीतेगा ही॥२२ जैसे शोधने की सामग्री के सम्बन्ध से स्वर्ण पाषाण शुद्ध सोना हो जाता है वैसे ही कालादि लन्धियों से अशुद्ध आत्मा परमात्मा हो जाता है। २४॥ मुनि सब कषायों को छोड़कर ;गाव, मद,राग,देष तथा व्यामोह को छोड़कर तथा लोक व्यवहार से विरक्त होता हआ ध्यान में स्थित होकर आत्माको ध्याना है ।गा०२०ायोगी ध्यानी मुनि मिथ्यात्व अज्ञान ,पाप और पुण्य को मनवचनकाय से छोड़कर,मौनव्रत से ध्यान में ठहरा हुआ आत्मा को ध्याता है। स्वातिशीरादि काजी रूप मेरे द्वारा देखा जाता है वह अचतन होने से सर्व प्रकार से कुछ भी नहीं जानता और जो जानता है वह दिखानी देता अत:मैं किसके साथ बात कक.१२९ ध्यान में स्थित योगी सबकों के मानव को निशेध करके संवरफुक्त हुआ पूर्व संचित कर्मों का नाश करता है-ऐसा जिनदेव ने कहा है सोजानो । मोक्ष पाहुड का गांधानुवाद ॥ गाथा संख्या ३०॥ -शेष अगले पृष्ठपर ६-१०७

Loading...

Page Navigation
1 ... 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638