Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

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Page 604
________________ tra अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित o आचार्य कुन्दकुन्द HDooo ADOO SAAMANAVARI Dool HDool MAMAYA W.V.W WAS Do म अर्थ ज्ञान, दर्शन और तप का सम्यक् भाव सहित आचरण हो तब चारित्र से शुद्ध जीवों को निर्वाण की प्राप्ति होती है। भावार्थ सम्यक्त्व से सहित ज्ञान, दर्शन और तप का आचरण करे तो चारित्र शुद्ध होता है और राग-द्वेष भाव मिट जाते हैं तब निर्वाण पाता है-यह मार्ग है।।११।। 戀戀养养%崇崇明藥崇崇崇泰拳事業事業事業事業事業事業助兼第 आगे इसी को शील को प्रधान करके नियम से कहते हैं :सीलं रक्खंताणं दसणसुद्धाण दिढचरित्ताणं । अत्थि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणं।। १२।। दरशन से शुद्ध हों, द ढ़ चरित हों, शील की रक्षा करें। विषयों से हो चित विरत उनका, नियम से निर्वाण हो।।१२।। अर्थ जिन पुरुषों का चित्त विषयों से विरक्त है, जो शील को धारण किए हुए है, दर्शन से शुद्ध हैं और द ढ है चारित्र जिनका-ऐसे पुरुषों के 'ध्रुव' अर्थात् निश्चय से नियम से निर्वाण होता है। भावार्थ जो विषयों से विरक्त होना है सो ही शील की रक्षा है, इस प्रकार जो शील की रक्षा करते हैं उन्हीं के सम्यग्दर्शन शुद्ध होता है और चारित्र अतिचार रहित शुद्ध व द ढ़ होता है ऐसे पुरुषों के नियम से निर्वाण होता है और जो विषयों में आसक्त हैं उनके शील बिगड़ता है तब दर्शन शुद्ध नहीं होता और चारित्र शिथिल होता है तब निर्वाण भी नहीं होता-इस प्रकार निर्वाण मार्ग में शील ही प्रधान है ।।१२।। 崇崇崇崇崇崇崇崇崇崇勇攀樂事業事業蒸蒸男崇勇樂 of 藥業明崇明崇明崇明藥業集崇明藥業業助崇勇崇崇勇

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