Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

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Page 598
________________ अष्ट पाहुड़ , स्वामी विरचित o आचार्य कुन्दकुन्द FDod Deo|| SARAMMU MAMAYA WANAMANAS Dog/ Dod A दुक्खेणेयदि णाणं णाणं णाऊण भावणा दुक्खं । भावियमई य जीवो विसएसु विवज्जए दुक्खं ।। ३।।। हो ज्ञान दुःख से, भावना हो दुःख से पा ज्ञान को। हो भावनायुत भी यदि, विषयों को त्यागे दुःख से।। ३ ।। अर्थ 樂樂男男飛崇崇禁禁禁禁禁禁禁禁禁藥男男戀 प्रथम तो ज्ञान है सो ही दुःख से प्राप्त होता है तथा कदाचित ज्ञान भी पावे तो उसको जानकर उसकी भावना करना और बार-बार अनुभव करना दुःख से होता है तथा कदाचित् ज्ञान की भावना सहित भी जीव हो तो विषयों को दुःख से त्यागता है। भावार्थ ज्ञान को पाना, फिर उसकी भावना करना तथा फिर विषयों का त्याग करना उत्तरोत्तर दुर्लभ है और विषयों को त्यागे बिना प्रकृति पलटी हुई नहीं जानी जाती अतः पूर्व में ऐसा कहा है कि विषय ज्ञान को बिगाड़ते हैं सो विषयों को त्यागना सो ही सुशील है।।३।। 崇崇崇崇崇崇崇崇崇崇勇攀樂事業事業蒸蒸男崇勇樂 आगे कहते हैं कि 'यह जीव जब तक विषयों में प्रवर्तता है तब तक ज्ञान को नहीं जानता और ज्ञान को जाने बिना विषयों से विरक्त हो तो भी कर्मों का क्षय नहीं करता' :ताव ण जाणदि णाणं विसयवलो जाव वट्टए जीवो। विसए विरत्तमेत्तो ण खवेइ पुराईयं कम्म।। ४ ।। तब तक न जाने ज्ञान को, जब तक विषय वशीभूत हो। केवल विषय की विरति से, नहिं क्षपण पूरव कर्म का ।।४।। 樂業樂業業助崇明業 ८.१०. 戀戀戀崇明藥業業

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