Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

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Page 599
________________ 卐業卐卐業卐業卐業業卐業業業卐業卐業 आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित अर्थ जब तक यह जीव 'विषयवलो' अर्थात् विषयों के वशीभूत हुआ वर्तता है तब तक ज्ञान को नहीं जानता तथा ज्ञान को जाने बिना केवल विषयों से विरक्ति मात्र से ही पूर्व में बाँधे जो कर्म उनका क्षय नहीं करता । भावार्थ जीव का उपयोग क्रमवर्ती है और स्वच्छ स्वभाव है क्योंकि वह जिस ज्ञेय को जानता है उस काल उससे तन्मय होकर वर्तता है इसलिए जब तक विषयों में आसक्त हुआ वर्तता है तब तक ज्ञान का अनुभव नहीं होता, इष्ट-अनिष्ट भाव ही रहता है तथा ज्ञान का अनुभव हुए बिना कदाचित् विषयों को त्यागे तो वर्तमान विषयों को तो छोड़े परन्तु पूर्व में जो कर्म बाँधे थे उनका तो ज्ञान के अनुभव बना क्षय होता नहीं, पूर्व में बँधे कर्मों का क्षय करने की तो ज्ञान ही की सामर्थ्य है इसलिए ज्ञान सहित होकर विषय त्यागना श्रेष्ठ है, विषयों को त्यागकर ज्ञान की भावना करना - यह ही सुशील है । । ४ । । उत्थानिका आगे ज्ञान का, लिंग ग्रहण का और तप का अनुक्रम कहते हैं :गाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च दसंणविहूणं । संजमहीणो य तओ जइ चरइ णिरत्थयं सव्वं । । ५ । । हो ज्ञान चारितहीन, लिंग का ग्रहण दर्शनहीन यदि । संयम रहित तप आचरे तो, निरर्थक ये सर्व हैं । । ५ । । अर्थ ज्ञान तो चारित्र से रहित हो तो निरर्थक है, लिंग का ग्रहण दर्शन से रहित हो तो निरर्थक है तथा तप संयम से रहित हो तो निरर्थक है इस प्रकार ये आचरण किया जाए तो सब निरर्थक है। ८-११) 卐卐卐業 出業業業業業業業業業業業業業業 專業版

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