Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

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Page 597
________________ अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित o आचार्य कुन्दकुन्द Doc/NA ADOOD DON. SARAMBAVU Dog/ oloCE WINNA W.V.W WAS Deel E 崇崇崇崇榮樂樂業先業事業事業樂業兼業助兼崇明 और यथापदवी चारित्र की प्रव त्ति होती है, जितने अंशों मे राग-द्वेष घटता है उतने अंशों में चारित्र कहलाता है तथा ऐसी प्रकति को सुशील कहते हैं-यह कुशील-सुशील का सामान्य अर्थ है। वहाँ सामान्य से विचारें तब तो ज्ञान ही कशील है और ज्ञान ही सशील है इसलिये ऐसा कहा है कि ज्ञानके और शील के विरोध नहीं है तथा जब संसार प्रक ति पलट कर मोक्ष के सन्मुख प्रक ति होती है तब सुशील कहलाता है इसलिये ज्ञान में और शील में विशेष कहा। यदि ज्ञान में सुशील नहीं आता तो ज्ञान को इन्द्रियों के विषय नष्ट करते हैं, उसे अज्ञान रूप करते हैं तब वह कुशील नाम पाता है। यहाँ कोई पूछता है कि गाथा में ज्ञान-अज्ञान का तथा कुशील-सुशील का नाम तो नहीं कहा, ज्ञान और शील ऐसा ही कहा है। उसका समाधान ऐसा है कि पूर्व गाथा में ऐसी प्रतिज्ञा की कि मैं शील के गुणों को कहूँगा उससे ऐसा जाना जाता है कि आचार्य के आशय में सुशील ही के कहने का प्रयोजन है, सुशील ही को शील नाम से कहते हैं, शील बिना कुशील कहलाता है। __तथा यहाँ 'गुण' शब्द उपकारवाचक तथा विशेष का वाचक लेना, शील से उपकार होता है तथा शील का विशेष गुण है सो कहेंगे। इस प्रकार ज्ञान में यदि शील नहीं आता तो कुशील होता है, इन्दिय-विषयों में आसक्त होता है तब ज्ञान अज्ञान नाम पाता है-ऐसा जानना। व्यवहार में शील नाम स्त्री का संसर्ग वर्जन करने का भी है सो भी विषय सेवन का ही निषेध है तथा पर द्रव्यमात्र का संसर्ग छोड़ना और आत्मा में लीन होना सो परम ब्रह्मचर्य है-ऐसे ये शील ही के नामान्तर जानना ।।२।। 崇崇崇崇崇崇崇明崇崇事業乐藥藥業樂業事業事業男 आगे कहते हैं कि 'ज्ञान होने पर भी ज्ञान की भावना करना और विषयों से विरक्त होना कठिन है' : 迷另类明明崇明》《明明泰明都列都列

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