Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

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Page 600
________________ *糕業業業業業業業5 आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित भावार्थ हेय-उपादेय का ज्ञान तो हो परन्तु त्याग-ग्रहण न करे तो ज्ञान निष्फल होता है, यथार्थ श्रद्धा के बिना वेष ले तो निष्फल होता है तथा इन्द्रिय-मन को वश करना और जीवों की दया करना सो संयम है, इसके बिना कुछ तप करे तो वह हिंसादि रूप विपरीत हो निष्फल होता है-ऐसे इनका आचरण निष्फल होता है । । ५ । । उत्थानिका आगे इसी कारण से ऐसा कहते हैं कि 'यदि इस प्रकार से थोड़ा भी करे तो बड़ा फल होता है' : णं चरित्तसुद्धं लिंगग्गहणं च दंसणविसुद्धं । संजमसहिदो य तओ थोओ वि महाफलो होई || ६ ॥ हो ज्ञान चारितशुद्ध, दर्शविशुद्ध लिंग का ग्रहण हो । संयम सहित तप अल्प हो, तो भी महाफल युक्त हो । । ६ ।। अर्थ ज्ञान तो चारित्र से शुद्ध, लिंग का ग्रहण दर्शन से विशुद्ध तथा संयम सहित तप-इस प्रकार से यदि थोड़ा भी आचरण करे तो महाफल रूप होता है। भावार्थ ज्ञान थोड़ा भी हो पर आचरण शुद्ध करे तो बड़ा फल होता है, यथार्थ श्रद्धापूर्वक वेष ग्रहण करे तो बड़ा फल होता है जैसे सम्यग्दर्शन सहित श्रावक ही हो तो श्रेष्ठ और उसके बिना मुनि का वेष भी श्रेष्ठ नहीं तथा इन्द्रिय संयम और प्राणिसंयम सहित उपवासादि तप थोड़ा भी करे तो बड़ा फल होता है और विषयाभिलाष व दया रहित बड़ा कष्ट सहित तप करे तो भी फल नहीं होता - ऐसा जानना । । ६ ।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'जो कोई ज्ञान को जानकर भी विषयासक्त रहते हैं वे संसार ही में भ्रमण करते हैं : 卐卐業 出業業業業業業業業業業業業業業 專業版

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