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जिसने परद्रव्ये गाथा का त्याग करके १-३०
तथा कर्मों का नाश करके ज्ञानमयी
आत्मा को पा लिया उसदेवके लिए मेरा नमस्कार ही। मोन्पामा
अनन्नव श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन से युक्त,कुर्म मतसे रहित औरहस्कृष्ट
पदकधारीदेवको में नमस्कार करके परम योगियों के लिए उस परमात्मा का कथन करूंगनिसे जानकर योगी ध्यान में स्थित हो निरंतर उसका अनुभव करते हुएबाधारहित,आवनाशी व अनुपम 'निर्वाण को प्राप्त करते हैं।
गाथा र वह आत्मा परमात्मा अन्तरात्मा और बहिरामा के भेदसे तेन प्रकारका है।इनमें से बहिरामाको छोड़कर उन्तरात्मा के उपाय से परमाहमा का ध्यान करना चाहिरराष स्पर्शनादि इन्द्रियाँ तो बहिरामा है, अन्तरंग में आत्मा का प्रगट अनुभवोपर संकल्प अन्तरात्मा है औरकर्म सपकलंक से रहित आत्मा परमात्मा है और वही देव । कर्ममल रहित , सरीर रहित, अनिन्द्रिय अर्थात् इन्द्रिय रहित अथवा अनिंदित अधात सर्वप्रकार प्रयांसायोग्य, केवलज्ञानमयी,विशुतात्मा, परमेष्ठी परमविन, जीवों के कल्याम अक्वा निर्वाण को करने वाला,शापवत और सिह परमामा है।हामन,वचमकाय से बहिनामा में मोड़कर अन्तरामा का अपय लेकर परमात्मा का ध्यान करना चाहिए-ऐसा बिनवरेन्द्र ने उपदेश दिया है।वा बार पदार्यों में ही बिसका मन सुरायमान है और इन्दिय स्पीद्वार के द्वारा लो अपने स्वरूप से च्युत है-ऐसा मुद्दाष्ट वहिरामा अपने शरीरको ही आलाजमता
मिष्याटि नीव अपने शरीर के समान दूसरे के शरीर को देखकर, यह देह अचेतन है पिरभी मिध्याभाव से आत्मभाव से ग्रहण करके बड़े कलसे दूसरे की आत्मा रूप ध्याता है,मानता है। ऐसे देहेमें हीख-पर की आत्माका निश्चय करने से और पदार्थो के स्वरूप को नहीं जानने से मनुष्यों के मा-दारादि बाह्यजीवों में मोह वर्तता है। यह मनुष्य मोह के उदय से मिष्यजान में लीन हुआ और मिथ्याभाव से भावित होता हुआ फिरभी शरीर को माला माना है जो देह से निरपेक्ष है ,रागद्वेषादि द्वन्द से रहित है,ममत्व तथा आरंभ से रहिरहे और निज आत्मस्वभाव में सुरत
वह योगी निर्माण को प्राप्त होता है जो मुनि अपनी आत्मा में रस है वह नियम से सम्माधि है और वही सम्यक्त्व भावरूप परिष्का हुआईएआठ कों को नष्ट करता है।लो साधु परद्रय में रस है वह मियादृष्टि होता है और नियाच सप परिणत हुआ वह दुष्प अठकों से बंधता है। आत्मस्वभाव से अन्य जो कुछ सचित्त, अतित और मिनद्रव्य है वह सब परद्रव्य है- ऐसा पदार्थो का सत्यार्थ स्वरूप सर्वदर्शियों ने कहा है / दुष्ट आठ कर्मों से रहित, अनुपम, ज्ञानशरीरी, निय और शुद्ध जो आत्मद्रव्य है उसे जिनेन्द्र भगवान ने स्वद्रव्य कहा है। बाजी मुनि परदथ्यों से पराङ्मुख हुए निज आमदय कोध्याते हैं, वे निदेपिचारित्रयुक्त होते हए जिनवर तीर्थकरों के मार्ग में लगे रहकर निर्माण को पाते हैं। योगी मुनि जिनवर भगवान के मत से शुद्ध आत्मा को ध्यान में ध्यान है और उससे निर्माणको पाता है तो उससे क्या स्वर्गलेक को नहीं पाएगा ? पाएगा ही ॥२०॥ जो पुरुष बड़ा भार लेकर स्क दिन में सौ योजन जाता है वह क्या पृथ्वीतलपर आधा मोस भी नहीं जा सका अवश्य ही जा सकता है ॥२॥ जो कोई सूभट संग्राम में सब ही संग्राम करने वालों कर सूहित करोड़ों नरों की सुगमता से जीनना है वह सुभट क्या एक नर को नहीं जीतेगा ? जीतेगा ही॥२२ जैसे शोधने की सामग्री के सम्बन्ध से स्वर्ण पाषाण शुद्ध सोना हो जाता है वैसे ही कालादि लन्धियों से अशुद्ध आत्मा परमात्मा हो जाता है। २४॥ मुनि सब कषायों को छोड़कर ;गाव, मद,राग,देष तथा व्यामोह को छोड़कर तथा लोक व्यवहार से विरक्त होता हआ ध्यान में स्थित होकर आत्माको ध्याना है ।गा०२०ायोगी ध्यानी मुनि मिथ्यात्व अज्ञान ,पाप और पुण्य को
मनवचनकाय से छोड़कर,मौनव्रत से ध्यान में ठहरा हुआ आत्मा को ध्याता है। स्वातिशीरादि काजी रूप मेरे द्वारा देखा जाता है वह अचतन होने से सर्व प्रकार से कुछ भी नहीं जानता और जो जानता है वह दिखानी देता अत:मैं किसके साथ बात कक.१२९ ध्यान में स्थित योगी सबकों के मानव को निशेध करके संवरफुक्त हुआ पूर्व संचित कर्मों का नाश करता है-ऐसा जिनदेव ने कहा है सोजानो । मोक्ष पाहुड का गांधानुवाद ॥ गाथा संख्या ३०॥ -शेष अगले पृष्ठपर
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