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२४. झाणरया सुचरित्ता ते गहिया मोक्खमग्गम्मि।। 8२।।
अर्थ-जो ध्यान में रत हैं और जिनके भला चारित्र है वे मोक्षमार्ग में |
ग्रहण किए गए हैं। २१. सम्मत्तं जो झायदि सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो।। 8७।।
अर्थ-जो जीव सम्यक्त्व का ध्यान करता है वह सम्यग्द ष्टि हो जाता
३०. लिंग ण परावेक्खं जो मण्णइ तस्स सम्मत्तं ।। ११।।
अर्थ-पर की अपेक्षा से रहित ऐसे नग्न यथाजात लिंग का जो श्रद्धान
करता है वह सम्यग्द ष्टि होता है। ३१. सम्माइट्ठी सावय धम्म जिणदेवदसियं कुणदि।। 9४।।
अर्थ-जो जिनदेव के द्वारा उपदेशित धर्म को करता है वह सम्यग्द ष्टि
श्रावक है। ३२. मिच्छादिट्ठी जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ।। १५ ।।
अर्थ-जो मिथ्याद ष्टि जीव है वह सुख से रहित होता हुआ संसार में
संसरण करता है। ३३. किं तस्स ठाणमोणं ण विजाणदि अप्पसमभावं।। 9७।।
अर्थ-जो आत्मा के समभाव अर्थात् वीतराग परिणाम को नहीं जानता है उसके खड़े होकर कायोत्सर्ग करने और धारण करने से क्या साध्य
है अर्थात् कुछ भी नहीं। ३४. झाणज्झयणे सुरदो
सो पावइ उत्तम ठाणं।। १०२।। अर्थ-ध्यान और अध्ययन में जो सुरत है वह उत्तम
स्थान मोक्ष को पाता है। ३५. आदा हु मे सरणं।। १०४, १०५।।
अर्थ-मेरे आत्मा ही का शरण है।
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