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________________ गाथा ३१-६३ कोमनि व्यवहार में सो है,वह अपने स्वरूप के कार्य में जागता है और जो व्यवहार में जागता है, वह अपने आत्मकार्य में सोता है। मोझ पाहुड गाया ऐसा जानकर योगी सब प्रकार से सारे ही व्यवहार को छोड़ता है और जैसा जिनवरेन्द्र ने कहा है वैसा परमात्मा का ध्यान करता है।गा०३ा हे मुनि ! तू पाँच महाव्रतों से युक्त होकर, पांच समिति तया तीन गुप्तियों में प्रवृत्ति करता हुआ रत्नत्रय से संयुक्त हो, सदा ध्यान और अध्यवन करगा०३३मोना रत्नत्रय की आराधना करने वाले जीव को आराधक जानना चाहिए और जे आराधना का विधान । है उसका फल कैवलज्ञान है मा० ३४ा जिनवरेन्द्र के द्वारा कहा हुआ वह आत्मासिद्ध है, शुद्ध है, सर्वज्ञ है तथा सर्वलोकदर्शी है । है मुम उसआत्मा ही को तू क्जान जान अथवा केवलज्ञान को आत्मा जाना गा०३५॥ जो योगी बिनवर के मतानुसार रत्नत्रयकी निश्चय से आराधना करता है वह आत्मा का ध्यान करता है और पर,न्यों का त्याग करता है। गा०३६॥ जो जानता है वह ज्ञानजोदेखना है वह दशनि और जो पुण्य-पाप का परिहार है वह चारित्र कहा गया है। गा० ३०/ तत्त्वरूचि सायकल है, तत्त्वों का ग्रहण सम्यग्ज्ञान है और पाप क्रियाओं का परिहार चारित्र है-ऐसा जिनवरेन्द्र ने कहा है गा०३८। यह सारभत उपदेश स्पष्ट हीजरा और मरण को हरने वाला है जो इसे मानता है,वह सम्यक्त्व है जो कि श्रमणों के लिए और प्रावकों के लिए भी कहा गया है। गा०४०॥ जो योगी जिनवर के मत से जीव और अजीव के विभाग को जानता है, वह सर्वदर्शियों के द्वारा सत्यार्थ रूप से सम्याज्ञान नहा गया है ।गा.४॥ जिस जीव-अजीव के भेद को जानकर योगी पुण्य और पाप दोनों का परिहार करना है, उसे कर्मरहित सर्वज्ञ देव ने निर्विकल्प चास्त्रि कहा है।०४२॥ रत्नत्रय से युक्त होकर शुद्ध आत्मा को ध्याता हुआ जी संयमी मुनि अपनी शक्ति के अनुसार तप करता है वह परम पद को पाता है।४३॥ तीन यानि मन-वचॅन-काय के बारा; तीन अधति वर्षा,शीत, उष्ण-इन काल योगों को धारण करके तीन अपति माया मिथ्या, निदान शल्यों से नित्य रहित होकर तीन अति दर्शन-ज्ञान-चारित्र से सुशोभित होकर रागद्वेष रूप दो दोषों से विप्रमुक्त हा योगी परमात्मा को ध्याता है ॥४४॥जो जीव मद,माया और कोध से रहित है : लोभ से विवर्जित है तथा निर्मल स्वभाव से युक्त है वह उत्तम सुख को पाता है।।४ाजा जीव विषय-कषायों से युक्त है, रुद्रपरिणामी है, जिन मन से पराङ्मुख है और जिसका मन परमात्मा की भावना से रहित है,वह सिद्धि सूख की नहीं पाता ।४६| जिनवरों के द्वारा कही हुई जिन मुद्रानिलम से सिद्धि सुख रूप है,वह स्वप्न में भी जिनको नहीं रुचती है वे गहन संसार वन में रहते हैं। गा० ४७॥ परमात्मा का ध्यान करता हुआ योगी पापदायक लोभ से छूट जाता है और नवीन कर्मको ग्रहण नहीं करता. ऐसा जिनवरेन्द्रों ने कहा है॥४८॥ चास्त्रि आत्मा का धर्म है, धर्म आत्मा का समभाव है और वह समभाव जीव का राग-द्वेष से रहित अनन्य परिणाम है।॥५०॥ जैसे स्वभाव से विशुद्ध स्फटिक मणि पर,द्रव्यों से युक्त घेकर अन्यरूप हो जाती है वैसे ही स्वभाव सेरागादि से रहित जीव अन्य के संयोग से स्पष्ट ही अन्य-अन्य प्रकार का होजाता है॥९॥जो देव और गुरु का भक्त है,सहधर्मियों तथा संयमी जीवों में अनुरक्त है और सम्यक्त्व को अत्यन्त आदर से धारण करता है-ऐसा योगी ही ध्यान में लीन होता है |२|| अज्ञानी जिस कर्मको उग्र तपश्चरण के द्वारा बहुत भवों में खिपाता है उसे ज्ञानी तीन गुप्तियों के बारा अन्तमुहर्त में नाश कर देता है। ५३॥ जो साधु'इष्टवस्तु के संयोग से परगव्य में रागभाव करता है वह इस कारण से अज्ञानी है और जो इससे विपरीत है वह ज्ञानी है।५४॥ जैसे परद्रव्य में राग क्रमसिव का कारण पूर्व में कहावैसे ही मोक्ष का कारण रणभाव भी आस्रव का हेतु है और उसी राग के कारण यह जीव अज्ञानी तथा आत्मस्वभाव से विपरीत होता है ॥५५॥कर्म में दीक्सि की बुद्धि गत हो रही है वह स्वभाव ज्ञान अर्थात केवलज्ञान के खंडसप दोष को करने वाला है तथा इस कारण से वह अज्ञानी है तथा जिनशासनका दूषक कहा गया है॥५६॥ जहां ज्ञान तौ चाखि रहित है और तपश्चरण सम्यग्दर्शन से रहित है तथा अन्य भी आवश्यक आदि क्रियाओं में शुद्धभाव नहीं है-ऐसे लिंग के ग्रहण में क्या सुख है ! जो अचेतन में चैतन को मानता है वह अज्ञानी है और जो चैतन में ही चेतन को मानता है वह ज्ञानी कहा जाता है ।।५८) जो ज्ञान तपरहित है और जो तप ज्ञानरहित है सो दोनों ही अकार्यकारी हैं इसलिए ज्ञान और तपसे संयुक्त पुरुषही निर्माण को पाता है। गा०५९॥ जो साधु बाह्म लिंग सेतो युक्त है व मध्यन्तर लिंग से रहित जिसका परिकर्म है वह साधु आत्मा के स्वरूप के आचरण रूपचारित्र से भ्रष्ट है तथा मोक्ष के मार्ग के विनाश को करने वालाही ॥ मोक्ष पाहुड गाथा ६१॥ मास कार तपरहिन है और अचेतन में चेतन काल से रति ६-१०८
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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