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________________ गाथा ६४-१०६ आत्मा है सो चारित्रवान है तथा दर्शन-ज्ञान से संयुक्त है ऐसे आत्मा को गुरु के प्रसाद से जानकर नित्य ध्याना चाहिए। गाथा ६४।। आत्मा को जानकर भी कितने ही ज्ञानस्वभाव की भावना से अत्यन्त भ्रष्ट हो विषयोंमें मोहित होते हुए चतुर्गति रूप संसार में घूमते हैं।।६७।। पुनः जो विषयों से विरक्त होते हुए आत्मा को जान कर उसकी भावना से सहित रहते हैं वे तप व गुणों से युक्त हो चतुर्गति रूप संसार को छोड़ देते हैं इसमें संदेह नहीं है।।६८।। जिस पुरुष के परद्रव्य में परमाणु मात्र भी मोह से प्रीति होती है वह मूढ़ है, अज्ञानी है और आत्मस्वभाव से विपरीत है।।६।। जो आत्मा का ध्यान करते हैं,दर्शन की शुद्धि और दृढ चारित्र से युक्त हैं एवं विषयों से विरक्त चित्त वाले हैं उनके निश्चित ही निर्वाण होता है।।७०।। जिस कारण से परद्रव्य में किया हुआ राग संसार ही का कारण होता है उस कारण से योगी नित्य ही आत्मा की भावना करते हैं।७१।। निन्दा-प्रशंसा, सुख-दुःख और शत्रुमित्र में समभाव से चारित्र होता है।७२।। जिनकी आचार क्रिया आवरण सहित है, जो व्रत और समिति से रहित हैं तथा शुद्ध भाव से अत्यन्त भ्रष्ट हैं ऐसे कितने ही मनुष्य कहते हैं कि यह पंचम काल ध्यान योग का नहीं है।।७३।। जो सम्यक्त्व और ज्ञान से रहित है, संसार के सुख में अत्यन्त रत है और मोक्ष से रहित है ऐसा अभव्य जीव ही कहता है कि यह ध्यान का काल नहीं है।।७४।। जो पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तियों के विषय में मूढ़ है, अज्ञानी है वही कहता है कि यह ध्यान का काल नहीं है।।७५।। भरत क्षेत्र में दुषम नामक पंचम काल में साधु के धर्म ध्यान होता है और वह आत्मस्वभाव में स्थित साधु के ही होता है ऐसा जो नहीं मानता वह भी अज्ञानी है ।७६||आज भी रत्नत्रय से शुद्धता को प्राप्त हुए जीव आत्मा का ध्यानकर इन्द्रपने व लौकांतिकदेवपने को पाते हैं और वहाँ से च्युत होकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं।७७।। जो पाप से मोहितबुद्धि मनुष्य जिनवरेन्द्र का लिंग धारण कर पाप करते हैं वे पापी मोक्षमार्ग से च्युत हैं।७८।। निश्चयनय से जो आत्मा, आत्मा के लिए, आत्मा में भली प्रकार रत होता है वह योगी सम्यक् चारित्रवान होता हुआ निर्वाण को पाता है।।८३।। पुरुषाकार, योगी और केवलज्ञान और केवलदर्शन से समग्र आत्मा का जो ध्यानी मुनि ध्यान करता है वह पापों को हरने वाला तथा निर्द्वन्द्व होता है।।८४।। पूर्वोक्त प्रकार तो जिनदेव ने श्रमणों के लिए उपदेश कहा, अब श्रावकों के लिए संसार का विनाशक और मोक्ष का उत्कृष्ट कारण उपदेश कहते हैं सो सुनो ।।८५।। हिंसा रहित धर्म, अठारह दोष रहित देव, निर्ग्रन्थ गुरु और अर्हत्प्रवचन में जो श्रद्धा है वह सम्यक्त्व है ||९०|| यथाजात रूप तो जिसका रूप है, जो उत्तम संयम सहित है, सब ही परिग्रह तथा लौकिकजनों की संगति से रहित है और जिसमें पर की कोई अपेक्षा नहीं है ऐसे निर्ग्रन्थ लिंग को जो मानता है उसके सम्यग्दर्शन होता है।।११।। कुत्सित देव,कुत्सित धर्म,कुत्सित लिंग की लज्जा, भय व गारव से जो वन्दना करता है वह प्रकट मिथ्यादृष्टि है ।।९।। स्वपरापेक्ष तो लिंग तथा रागी और असंयमी देव की मैं वन्दना करता हूँ ऐसा जो मानता है वह मिथ्यादृष्टि है, शुद्ध सम्यग्दृष्टि उनका श्रद्धान नहीं करता।।१३।। जो साधुमूलगुणों को छेदकर बाह्य क्रिया कर्म करता है वह सिद्धि के सुख को नहीं पाता क्योंकि वह सदा जिनलिंग का विराधक है।।९८|| इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुए 'मोक्षपाहुड'ग्रंथ को जो अत्यन्त भक्ति से पढ़ता है, सुनता है और इसकी भावना करता है वह शाश्वत सुख को पाता है।।१०६।। करता है वह सिह जो साधुमूलगुणों कायग्दृष्टि उनका श्र ६-१०६
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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