Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

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Page 576
________________ अष्ट पाहुड seats स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द . ह Dos 00 Doo/ PAN प्रमाद-निद्रा आदि जिसके प्रचुर बढ़ते हैं तब 'लिंगव्यवायी' अर्थात् व्यभिचारी होता है, 'मायी' अर्थात् उस काम सेवन के लिए अनेक छल करना विचारता है। जो ऐसा होता है वह तिर्यंचयोनि है-पशु तुल्य है, मनुष्य नहीं इसी कारण श्रमण नहीं है। भावार्थ ग हस्थपना छोड़कर आहार में लोलुपता करने लगा तो ग हस्थी में अनेक रसीले भोजन मिलते थे उन्हें क्यों छोड़ा ! इससे जाना जाता है कि आत्मभावना के रस को पहिचाना नहीं इसलिए विषय सुख की ही चाह रही तब भोजन के रस के साथ के अन्य भी विषयों की चाह होती है तब व्यभिचार आदि में प्रव त्ति करके लिंग को लजाता है, ऐसे लिंग से तो ग हस्थाचार ही श्रेष्ठ है-ऐसा जानना।।१२।। 帶柴柴崇崇崇崇明藥業業業%崇崇崇崇%崇崇崇 崇勇兼功兼崇崇崇崇先崇勇兼崇勇兼勇崇勇攀事業蒸蒸男樂事業 आगे फिर इसी का विशेष कहते हैं :धावदि पिंडणिमित्तं कलह काऊण भंजदे पिंडं। अवरुपरूई संतो जिणमग्गि ण होइ सो समणो।। १३।। आहार अर्थि दौड़ता कर, कलह खाता पिंड को। ईर्ष्या करे जो अन्य से, वह श्रमण जिनमार्गी नहिं ।।१३।। अर्थ जो लिंगधारी 'पिंड' जो आहार उसके निमित्त दौड़ता है तथा आहार के लिए | कलह करके आहार को भोगता है, खाता है तथा उसके निमित्त अन्य से परस्पर ईर्ष्या करता है वह श्रमण जिनमार्गी नहीं है। भावार्थ इस काल में जिनलिंग से भ्रष्ट होकर पहले अर्धफालक हुए, पीछे उनमें श्वेताम्बर आदि संघ हुए जिन्होंने शिथिलाचार का पोषण करके लिंग की प्रव त्ति बिगाड़ी 藥業崇崇崇勇士崇明藥業樂業崇明崇明

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