Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

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Page 582
________________ 卐糕卐糕卐 業業業業業業業業業5 * अष्ट पाहड़ आचार्य कुन्दकुन्द अर्थ जो लिंग धारण करके और स्त्रियों के समूह में उनका विश्वास करके तथा उनको विश्वास उत्पन्न कराके दर्शन - ज्ञान - चारित्र को देता है, उनको सम्यक्त्व बताता है, पढ़ना-पढ़ाना ज्ञान देता है, उनको दीक्षा देता है, प्रवत्ति सिखाता है - इस प्रकार विश्वास उत्पन्न कराके उनमें प्रवर्तता है सो ऐसा लिंगी पार्श्वस्थ भी है और पार्श्वस्थ से भी निक ष्ट है, प्रकट भाव से विनष्ट है, श्रमण नहीं है। भावार्थ नहीं है। लिंग धारण करके स्त्रियों को विश्वास उत्पन्न कराके उनसे निरन्तर पढ़ना-पढ़ाना और लालपाल रखता उसको जानना कि इसका भाव खोटा है। पार्श्वस्थ भ्रष्ट मुनि को कहते हैं, उससे भी यह निक ष्ट है, ऐसे को साधु नहीं कहते । ।२०।। उत्थानिका ரு & she shy. स्वामी विरचित आगे फिर कहते हैं - पुंछ लिघर जसु भुंजदि णिच्चं संथुणदि पोसए पिंडं । पावदि बालसहावं भावविणट्टो ण सो समणो ।। २१ ।। व्यभिचारिणी घर अशन, नित कर स्तुती तन पोषे जो । पाता है बालस्वभाव, भावविनष्ट है वह, श्रमण नहिं । । २१ । । अर्थ जो लिंग धारण कर और 'पुंश्चली' जो व्यभिचारिणी स्त्री उसके घर भोजन लेता है, आहार करता है और नित्य उसकी स्तुति करता है, उसको सराहता है कि 'यह बड़ी धर्मात्मा है, इसको साधुओं की बड़ी भक्ति है - ऐसे नित्य उसकी सराहना करता है, इस प्रकार शरीर को पालता है ( उसका लालन-पालन करता है प्यार करता है) सो ऐसा लिंगी बालस्वभाव को प्राप्त होता है, भाव से विनष्ट है, वह श्रमण भावार्थ जो लिंग धारण करके व्यभिचारिणी का आहार खा शरीर पालता है, उसकी ७-२१ 卐卐卐] 卐卐卐 卐業業卐業業業業

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