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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जिनमार्ग में लगा हुआ योगी शुद्धात्मा का ध्यान करके यदि
मोक्ष पा लेता है तो क्या उसके द्वारा स्वर्ग नहीं पाएगा अर्थात् पाएगा ही' :जिणवरमण जोई झाणे झाएइ सुद्धमप्पाणं ।
जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइ किं तेण सुरलोयं ।। २० ।।
जिनवर के मत से योगी ध्यान में, ध्यावे आतम शुद्ध को।
जिससे मिले निर्वाण क्या, सुरलोक की प्राप्ति न हो ।। २० ।।
स्वामी विरचित
अर्थ
जो योगी - ध्यानी मुनि है वह जिनवर भगवान के मत से शुद्ध आत्मा को ध्यान
में ध्याता है और उससे निर्वाण को पाता है तो उसके द्वारा क्या वह स्वर्गलोक को नहीं पाएगा अर्थात् पाएगा ही ।
भावार्थ
कोई जानेगा कि 'जो जिनमार्ग में लगकर आत्मा का ध्यान करता है वह मोक्ष को पाता है पर स्वर्ग तो इससे होता नहीं' उसको कहा है कि 'जिनमार्ग में प्रवर्तने वाला शुद्ध आत्मा का ध्यान करके जब मोक्ष ही पा लेता है तो उससे स्वर्गलोक क्या कठिन है, वह तो इसके मार्ग में ही है' । । २० ।।
उत्थानिका
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आगे इस अर्थ को द ष्टान्त से दढ़ करते हैं :
जो जाइ जोयणसयं दियहेणेक्केण लेवि गुरुभारं ।
सो किं कोसद्धं पि हु ण सक्कए जादु भुवणयले ।। २१ ।। गुरुभार ले जो एक दिन में, गमन सौ योजन करे ।
इस भुवनतल पर वह पुरुष, क्रोशार्ध नहीं क्या जा सके ।। २१ । ।
६-२३
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