Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

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Page 526
________________ अष्ट पाहड स्वामी विरचित .... आचार्य कुन्दकुन्द .000 Bloot म HDOOT JOY वैराग्य ही हुआ था पराग्य में तर 听听器呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢呢 मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थानों से परे शुद्ध सिद्धस्वभाव स्वरूप स्थान, उसे पाता है सो कैसा हुआ पाता है-१. प्रथम तो साधु वैराग्य में तत्पर हो, संसार-देह-भोगों से जो पहिले विरक्त होकर मुनि हुआ था उस ही भावनायुक्त हो, २. परद्रव्य से पराङ्मुख हो, जैसे वैराग्य हुआ था वैसे ही परद्रव्य का त्याग करके उससे पराङ्मुख रहे, ३. इन्द्रियों के द्वारा विषयों से कुछ संसार सम्बन्धी सुख सा होता है उससे विरक्त हो, ४. अपना आत्मीक शुद्ध सुख जो कषायों के क्षोभ से रहित, निराकुल एवं शांतभाव रूप ज्ञानानन्द उसमें अनुरक्त हो-लीन हो, बारम्बार उस ही की भावना रहे, ५. गुण के गुण से विभूषित है आत्मप्रदेश रूप अंग जिसका अर्थात् मूलगुण व उतरगुणों से जो आत्मा को अलंकृत-शोभायमान किये हुए हो,' ६. हेय-उपादेय तत्व का जिसके निश्चय हो, निज आत्मद्रव्य तो उपादेय है तथा अन्य परद्रव्य और परद्रव्य के निमित्त से हुए अपने विकार भाव वे सब हेय हैं, ऐसा जिसके निश्चय ७. साधु हो-हो आत्मा के स्वभाव को साधने में भलीभाँति तत्पर हो तथा 8. धर्म-शुक्ल ध्यान और अध्ययन अर्थात् शास्त्रों को पढ़कर ज्ञान की भावना में सुरत हो अर्थात् भली प्रकार से लीन हो-ऐसा साधु उत्तम स्थान जो मोक्ष उसको पाता है। भावार्थ मोक्ष को साधने का यह उपाय है, अन्य कुछ नहीं है।।१०१–१०२ ।। 崇巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩巩業听听听听听听听 उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'सबसे उत्तम पदार्थ जो शुद्ध आत्मा है वह इस देह ही में स्थित है, उसको जानो' :णविएहिं जं णमिज्जइ झायज्जइ झाइएहिं अणवरयं । थुव्वंतेहिं थुणिज्जइ देहत्थं किंपि तं मुणह।। १०३।। प्रणमें प्रणतजन हैं जिसे, ध्यातव्य ध्यावें अनवरत। थुतियोग्य जिसकी थुति करें, देहस्थ वह कुछ जान तू।।१०३ ।। 樂樂業業帶頭禁% 灣農%樂樂业区 戀戀禁禁禁禁%崇明

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