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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
यदि पढ़े बहुश्रुत और यदि चारित्र बहुविध भी करे ।
वह बालश्रुत व बालचारित, आत्म से विपरीत जो । १०० ।।
अर्थ
जो आत्मस्वभाव से विपरीत बाह्य बहुत शास्त्रों को पढ़ेगा और बहुत प्रकार के चारित्र का आचरण करेगा तो वह सब ही बालश्रुत और बालचारित्र होगा । भावार्थ
आत्मस्वभाव से विपरीत शास्त्र का पढ़ना और चारित्र का आचरण करना - ये
सब ही बालश्रुत व बालचारित्र हैं, अज्ञानी की क्रिया हैं क्योंकि ग्यारह अंग और
नौ पूर्व तक तो अभव्य जीव भी पढ़ता है और वह बाह्य मूलगुण रूप चारित्र भी
पालता है तो भी मोक्ष के योग्य नहीं होता - ऐसा जानना । । १०० ।।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'ऐसा साधु मोक्ष पाता है' :
वेरग्गपरो साहू परदव्वपरंमुहो य सो होई ।
संसारविरो सगसुद्धसुण अणुरत्तो ।। १०१ ।।
गुणगणविभूसियंगो हेयोपादेयणिच्छिदो साहू ।
झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं ।। १०२ । । जुगमं । । वैराग्य तत्पर साधु जो, हो पराङ्मुख परद्रव्य से।
निज शुद्ध सुख अनुरक्त हो, संसार सुख से हो विरत । । १०१ ।।
आदेय-हेय का निश्चयी, गुणगण विभूषित अंग युत ।
सुरत ध्यानाध्ययन में, स्थान उत्तम पाता वह । । १०२ । ।
अर्थ
जो साधु ऐसा हो वह उत्तम स्थान जो लोकशिखर के ऊपर सिद्धक्षेत्र तथा
६-८६.
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