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अष्ट पाहु
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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उत्थानिका Eter
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आगे शुभ भावना से रहित अशुभ भावना का निरूपण करते हैं :कंदप्पमाइयाओ पंच वि असुहादिभावणाईया। भाऊण दव्वलिंगी पहीणदेवो दिवे जाओ।। १३।। हो द्रव्यलिंगी साधु अशुभादि कांदी भावना। जो पांच विध हैं भा उन्हें, हुआ हीन देव तु स्वर्ग में।।१३।।
अर्थ हे जीव ! तु द्रव्यलिंगी मुनि होकर कान्दी को आदि लेकर पांच अशुभ शब्द हैं आदि में जिनके-ऐसी अशुभ भावना भाकर स्वर्ग में 'प्रहीणदेव' अर्थात् नीच देव उत्पन्न हुआ।
भावार्थ __ कान्दपी, किल्विषी, संमोही, दानवी एवं आभियोगिकी-ये पाँच अशुभ भावनाएँ हैं। सो निर्ग्रन्थ मुनि होकर सम्यक्त्व भावना के बिना इन अशुभ भावनाओं को यदि भावे तो किल्विष आदि नीच देव होकर मानसिक दुःख को प्राप्त होता है।।१३।।
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टिO- 1. इन पांच भावनाओं का स्वरूप 'भगवती आराधना जी' ग्रंथ में इस प्रकार दिया है
1.कांदी भावना-जिसके वचन की प्रवत्ति व काय की चेष्टा भांडपने को लिए नीच मनुष्य की सी हो, काम की उत्कटता से जिसका चलल हो, सदाकाल हास्यकथा के कहने में उद्यमी हो और अन्यजनों के विस्मय करने वाली चेष्टा करे वह 'कान्दी भावना' संयुक्त होता है। 2.किल्विषी भावना-जो सत्यार्थ ज्ञान के, दलक्षण रूप धर्म के, केवली भगवान के और
आचारांग की आज्ञा प्रमाण प्रवर्तने वाले आचार्य, उपाध्याय व साधुओं के मायाचार करके दूषण लगावे उसके 'किल्विषी भावना' होती है। 3.संमोही भावना-जो उन्मार्ग का उपदेक हो अर्थात् हिंसा में धर्म बतावे, सम्यग्ज्ञान को दूषण लगाने वाला हो, रत्नत्र्यरूप सम्यक् मार्ग से विरुद्ध प्रवर्तने वाला हो एवं मिथ्याज्ञान से मोहित हो उसके 'सम्मोही भावना' होती है। 4.आसुरी (दानवी) भावना-जिसके वैर दाढ़ हो, कलह सहित तप हो, ज्योतिषादि निमित्त
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