________________
अष्ट पाहुए .
sarata
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
Doc
Doc
FDodie
Doo||*
HP
Des/
Doclai Deol
HDool
दव्वेण सयलणग्गा णारयतिरिया य सयलसंघाया। परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता।। ६७।। होते नगन तिर्यंच-नारक, द्रव्य से सब जीव ही। पर भाव शुद्ध नहीं अतः, पाते न भावश्रमणपना ।।६७।।
अर्थ
添添添添明帶禁藥崇崇勇兼崇勇勇兼業助兼業助崇勇
द्रव्य से बाह्य में तो सब प्राणी नग्न होते हैं जिनमें नारकी और तिर्यंच जीव तो निरन्तर वस्त्रादि से रहित नग्न ही रहते हैं तथा 'सकलसंघात' कहने से अन्य जो मनुष्य आदि वे भी कारण पाकर नग्न होते हैं वे भी परिणामों से अशुद्ध होते हैं इसलिए भावश्रमणपने को प्राप्त नहीं होते।
भावार्थ यदि नग्न रहने से ही मुनिलिंग होता होता तो नारकी और तिर्यंच आदि सकल जीवसमूह जो नग्न रहते हैं वे सब ही मुनि ठहरते परन्तु मुनिपना तो भाव शुद्ध होने पर ही होता है, जब तक भाव अशुद्ध रहते हैं तब तक द्रव्य से नग्न भी हो तो भी भावनिपना नहीं पाता।।६७।।
先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁
आगे इसी अर्थ को द ढ़ करने के लिए केवल नग्नपने को निष्फल दिखाते हैं :
णग्गो पावइ दुक्खं णग्गो संसारसायरे भमइ। णग्गो ण लहइ बोहिं जिणभावणवज्जिओ सुइरं।। ६8।। जिनभावनावर्जित नगन, पाता न सम्यग्ज्ञान को। संसार सागर घूमता, पाता दुःखों को सर्वदा ।।६8 ।।
अर्थ नग्न है सो सदा दुःख पाता है, नग्न है सो सदा संसार-समुद्र में भ्रमण करता है तथा नग्न है सो 'बोधि' अर्थात् सम्यग्ज्ञान को नहीं पाता। कैसा है वह 崇明崇崇明崇明聽聽業-12戀戀戀樂業兼功兼第