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तथा आत्मा में लीनता होती है। भाव सहित द्रव्यलिंग से ही आत्मा के कर्मप्रकति के समूह का नाश होता है, मोक्षमार्ग में दोनों ही चाहिए। द्रव्यलिंग रहित मात्र भावलिंग तो हो सकता ही नहीं और भावरहित द्रव्यमात्र लिंग कार्यकारी नहीं ।
(३) द्रव्यलिंग सम्बन्धित तीन द्रष्टव्य बिन्दु-आ० कुन्दकुन्द की गाथाओं में व मान्य पं० जी क त टीका में वे तीन द्रष्टव्य बिन्दु ये हैं :
१. जो भाव के बिना द्रव्यलिंग धारण किए हुए हैं, उन आगम के अनुकूल बाह्य आचरण से युक्त द्रव्यलिंगी मुनियों को उनके द्रव्यलिंग को निष्फल व अकार्यकारी बताकर, त्याग देने की प्रेरणा नहीं की वरन् १२, १७ एवं ४१ आदि गाथाओं में कुन्दकुन्द स्वामी ने तो उन्हें महाजस, मुनिप्रवर, मुनिवर आदि महिमापूर्ण शब्दों से सम्बोधित किया और उन्हीं गाथाओं के भावार्थ में पं० जयचन्द जी ने उन कुन्दकुन्द स्वामी के सम्बोधनों का आशय बताते हुए उनके बाह्य आचरण एवं द्रव्यलिंग के भी सम्यक् रूप से पालन करने की प्रशंसा करने के साथ-साथ उन्हें भावलिंग और धारण करने की प्रेरणा की क्योंकि मोक्षमार्ग में द्रव्य व भाव दोनों ही लिंगों की आवश्यकता है तो द्रव्यलिंग धारी तो यह है ही, यदि पुरुषार्थपूर्वक भावलिंग की प्राप्ति और हो गई तो अभीष्ट मोक्ष की सिद्धि होगी ही ।
२. भावलिंग रहित द्रव्यलिंग धारण करना चाहिए या नहीं - ऐसा प्रश्न होने पर उसे भी धारण करने का निषेध नहीं किया । गाथा ३४ के भावार्थ में पं० जी कहते हैं कि यदि कोई कहे कि द्रव्यलिंग धारण करके परम्परा से भी यदि भावलिगं की प्राप्ति न हो और द्रव्यलिगं निष्फल चला जावे तो भावरहित उसे धारण करने का लाभ नहीं तो उसका उत्तर है कि ऐसी मान्यता से व्यवहार के लोप का दोष आएगा, अतः भावरहित भी द्रव्यलिंग पहले धारण करना चाहिए परन्तु उससे ही साध्य की सिद्धि मानकर सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, उसे भी यत्न से साधने के साथ-साथ भावलिंग को प्रधान मानकर उसके सन्मुख उपयोग रखना चाहिए ।
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