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आचार्य कुन्दकुन्द
● अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
द्रव्य छह होते हैं जिनमें जीवद्रव्य तो संख्या से अनंतानंत हैं, पुद्गल द्रव्य उनसे अनंतानंत गुणे हैं, आकाश द्रव्य एक है सो अनंतानंत प्रदेशी है जिसके मध्य में सारे जीव और पुद्गल असंख्यात प्रदेशों में स्थित हैं तथा एक धर्म द्रव्य और एक अधर्म द्रव्य-ये दोनों असंख्यात - असंख्यात प्रदेशी हैं जिनसे आकाश के लोक- अलोक का विभाग है तथा इस लोक ही में कालद्रव्य के असंख्यात कालाणु स्थित हैं। इन सब द्रव्यों की परिणमन रूप जो पर्यायें हैं वे एक-एक द्रव्य की अनंतानंत हैं जिनमें काल द्रव्य का परिणमन निमित्त है। उसके निमित्त से क्रम रूप होता समयादि व्यवहार काल कहलाता है जिसकी गणना से द्रव्यों की अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायें अनन्तानन्त हैं । इन सब द्रव्य - पर्यायों को अरहंत का दर्शन - ज्ञान एक समय में देखता, जानता है इसी कारण उनको सर्वदर्शी, सर्वज्ञ कहते हैं ।
इस प्रकार अरहंत का निरूपण चौदह गाथाओं में किया। उनमें प्रथम गाथा में जो कहा था कि नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, गुण एवं पर्याय सहित च्यवन, आगति और संपदा - ये भाव अरहंत का ज्ञान कराते हैं उसका व्याख्यान नामादि
कथन में सब ही आ गया। अब उसका संक्षेप में भावार्थ लिखते हैं :
गर्भ कल्याणक–प्रथम तो गर्भ कल्याणक होता है सो प्रभु के गर्भ में आने से छह महिने पहले इन्द्र के द्वारा प्रेरित कुबेर जिस राजा की रानी के गर्भ में प्रभु आएंगे उसके नगर की शोभा करता है; रत्न एवं सुवर्णमयी भवन बनाता है; नगर के कोट, खाई, दरवाजे और सुन्दर वन-उपवन की रचना करता है; सुन्दर जिनके वेष हैं ऐसे नर-नारी नगर में बसाता है तथा नित्य राजभवन के ऊपर रत्नों की वर्षा हुआ करती है। पुनः जब वे माता के गर्भ में आते हैं तब माता को सोलह शुभ स्वप्न आते हैं तथा रुचिक द्वीप में बसने वाली देवांगनाएँ माता की नित्य सेवा किया करती हैं । जन्म कल्याणक-ऐसे नौ मास बीतने पर प्रभु का तीन ज्ञान और दस अतिशय सहित जब जन्म होता है तब तीन लोक में क्षोभ होता है, देवों के बिना बजाये बाजे बजते हैं, इन्द्र का आसन कम्पायमान होता है तब इन्द्र प्रभु का जन्म हुआ जानकर स्वर्ग से ऐरावत हाथी पर चढ़कर आता है, चार प्रकार के सब देव-देवियाँ एकत्रित होकर आते हैं, शची इन्द्राणी माता के पास जाकर गुप्त रूप से प्रभु को ले आती है, इन्द्र हर्षित होकर उन्हें हजार नेत्रों से देखता है। सौधर्म इन्द्र उन्हें अपनी गोद
में लेकर ऐरावत हाथी पर चढ़कर मेरु पर्वत की ओर चलता है, ईशान इन्द्र छत्र
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