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क्रमांक
विषय
पष्ठ
५२. एकादशांग पाठी पूर्ण श्रुतज्ञानी भी अभव्यसेन को भावश्रमणपने का अलाभ
५-६१ ५३. शास्त्र के अपाठी भी भावविशुद्ध शिवभूति मुनि को केवलज्ञान का लाभ
५-६२ ५४. बाह्य नग्नलिंग से क्या कार्य होता है, भावसहित द्रव्यलिंग से ही कर्मसमूह का नाश होता है
५-६३ ५५. भावरहित कोरा नग्नत्व अकार्यकारी अतः आत्मभावना को भाने का उपदेश
५-६४ ५६. निःसंग, निर्मान एवं आत्मरत साधु ही भावलिंगी होता है। ५-६५ ५७. भावलिंगी साधु का ममत्वपरिहार एवं आत्माभिमुखता । ५-६५ ५८. भावलिंगी के ज्ञान, दर्शन, संयम व त्यागादि सब भावों में आत्मा ही है
५-६६ ५९. भावलिंगी साधु की अकिंचनता
५-६७ ६०. शाश्वत सुख के लाभ के लिए सुविशुद्ध व निर्मल आत्मा को भाने का उपदेश
५-६८ ६१. आत्मस्वरूप की भावना से निर्वाण की प्राप्ति
५-६८ ६२. सर्वज्ञ प्रतिपादित जीव का स्वरूप-ज्ञानस्वभाव व चेतनसहितता। ६३. जीव का सद्भाव मानने वाले ही सिद्ध होते हैं
५-७० ६४. जीव का स्वरूप-अरस, अरूप व अगंध इत्यादि
५-७१ ६५. पाँच प्रकार के ज्ञान की भावना करने की प्रेरणा
५-७२ ६६. भावरहित पढ़ना-सुनना भी कार्यकारी नहीं
५-७३ ६७. भावशुद्धि बिना नग्नता निष्प्रयोजन है
५-७४ ६८. जिनभावनावर्जित नग्न दुःख पाता है
५-७५ ६९. पैशुन्यादि दोषपूरित द्रव्यलिंगी की अकीर्तिपात्रता
५-७७ ७०. अभ्यंतर भावदोषों का त्याग करके बाह्य निर्ग्रन्थ लिंग को प्रकट करने की प्रेरणा
५-७६ ७१. सदोष मुनि निर्गुण एवं निष्फल है, नटश्रमण है
५-७७
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