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आचार्य कुन्दकुन्द
अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
वैसे वस्त्रादि भी धर्मोपकरण हैं, जैसे क्षुधा की बाधा आहार से मिटाकर संयम साधते हैं वैसे शीत आदि की बाधा यदि वस्त्र आदि से मिटाकर संयम साधें तो इसमें विशेष क्या है ?'
उनको कहते हैं कि 'इसमें तो बड़े दोष आते हैं तथा फिर तो कोई कहेगा कि यदि काम विकार उत्पन्न हो तो स्त्री सेवन भी करे तो इसमें क्या विशेष है ! इसलिए इस प्रकार तो कहना युक्त नहीं है। क्षुधा की बाधा तो आहार से मिटाना युक्त है, आहार के बिना देह अशक्त हो जाता है तथा छूट जाये तो अपघात का दोष आता है परन्तु शीत आदि की बाधा तो अल्प है सो यह तो
ज्ञानाभ्यास आदि के साधन से ही मिट जाती है और जो अपवाद मार्ग कहा सो जिसमें मुनिपद रहे ऐसी क्रिया करना तो अपवाद मार्ग है परन्तु जिस परिग्रह
से तथा जिस क्रिया से मुनिपद से भ्रष्ट होकर ग हस्थ के समान हो जाये वह तो अपवाद मार्ग है नहीं । दिगम्बर मुद्रा धारण करके कमंडलु-पीछी सहित आहार-विहार और उपदेशादि में प्रवर्ते सो अपवाद मार्ग है और सब प्रवत्ति को छोड़ परम निर्ग्रन्थ होकर शुद्धोपयोग में लीन हो सो उत्सर्ग मार्ग कहा है। ऐसा
मुनिपद अपने से सधता न जानकर किसलिए शिथिलाचार का पोषण करना,
मुनिपद की सामर्थ्य न हो तो श्रावक धर्म ही का पालन करना, परम्परा से इसी
से सिद्धि हो जाएगी। जिनसूत्र की यथार्थ श्रद्धा रखने से सिद्धि है, इसके बिना
अन्य क्रिया सब ही संसार मार्ग हैं, मोक्षमार्ग नहीं है-ऐसा जानना' ।। १८ ।।
उत्थानिका
आगे इस ही अर्थ का समर्थन करते हैं
-
जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स ।
सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ णिरायारो ।। ११।।
जिस मत में परिग्रहग्रहण अल्प वा, बहुत होता लिंगि के ।
गर्हित है वह जिनवचन में, परिग्रह रहित निरगार है । । 99 ।।
(२-३१)
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