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संबोधने के लिए जैसा ज्ञान और ज्ञान का स्वरूप कहा है उस ज्ञानस्वरूप आत्मा को हे भव्य ! तू अच्छी तरह जान ।।8।।
गा० ३१ - जीवाजीवविभत्ती...' अर्थ-जो पुरुष जीव और अजीव का भेद जानता है वह सम्यग्ज्ञानी होता है। रागादि दोषों से रहित ही जिनशासन में मोक्षमार्ग है । ।9।। गा० ४० - दंसणणाणचरित्तं....' अर्थ-दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों को तू परम श्रद्धा से जान जिन्हें जानकर योगी शीघ्र ही निर्वाण को पाते हैं ।। १० ।। गा० ४१- पाऊण णाणसलिलं....' अर्थ-जो पुरुष ज्ञान रूपी जल को पाकर निर्मल और सुविशुद्ध भावों से संयुक्त होते हैं वे शिवालय में बसने वाले तथा त्रिभुवन के चूडामणी सिद्ध परमेष्ठी होते हैं ।।११।।
हि गा० ४२ - णाणगुणेहिं विहीणा...' अर्थ-जो पुरुष ज्ञान गुण से रहित हैं वे अपनी इच्छित वस्तु लाभ को नहीं पाते हैं ऐसा जानकर तू गुण-दोषों को जानने के लिए सम्यग्ज्ञान को भली प्रकार जान ।। १२ । ।
गा० ४३ - 'चारित्तसमारूढ़ो....' अर्थ-चारित्र में आरूढ़ ज्ञानी अपनी आत्मा में परद्रव्य को नहीं चाहता है, वह शीघ्र ही अनुपम सुख पाता है-ऐसा तू निश्चय से
जान ।। १३ ।।
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