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अष्ट पाहड़ate
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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अर्थ १. निःशंकित, २. निःकांक्षित, ३. निर्विचिकित्सा, ४. अमूढ़द ष्टि, ५. उपगृहन, ६. स्थितिकरण, ७. वात्सल्य एवं ८. प्रभावना-ऐसे आठ अंग हैं।
भावार्थ ये आठ अंग पहले कहे गये जो शंकादि आठ दोष उनके अभाव से प्रगट होते हैं। इनके उदाहरण पुराणों में हैं सो उनकी कथा से जानना। (१) निःशंकित का तो अंजन चोर का उदाहरण है जिसने जिनवचन में शंका नहीं की और निर्भय होकर छींके की लड़ काटकर मंत्र सिद्ध किया। (२) निःकांक्षित का सीता, अनंतमती एवं सुतारा आदि का उदाहरण है जिन्होंने भोगों के लिए धर्म को नहीं छोड़ा। (३) निर्विचिकित्सा का उद्दायन राजा का उदाहरण है जिसने मुनि का शरीर अपवित्र देखकर ग्लानि नहीं की। (४) अमूढ़द ष्टि का रेवती रानी का उदाहरण है जिसे विद्याधर ने अनेक महिमा दिखाई तो भी जो श्रद्धा से शिथिल नहीं हुई। (५) उपगूहन का जिनेन्द्रभक्त सेठ का उदाहरण है जिसने चोर ने जब ब्रह्मचारी का वेष बनाकर छत्र चुराया तो उससे ब्रह्मचारी पद की निंदा होती जानकर उसका दोष छिपाया। (६) स्थितिकरण का वारिषेण का उदाहरण है जिन्होंने पुष्पदंत ब्राह्मण को मुनिपद से शिथिल हुआ जानकर दढ़ किया। (७) वात्सल्य का विष्णुकुमार मुनि का उदाहरण है जिन्होंने अंकपन आदि मनियों के उपसर्ग का निवारण किया। (8) प्रभावना में वजकुमार मुनि का उदाहरण है जिन्होंने विद्याधरों की सहायता पाकर धर्म की प्रभावना की।
इस प्रकार इन आठ अंगों के प्रकट होने पर सम्यक्त्वाचरण चारित्र संभव होता है। जैसे शरीर में हाथ पैर होते हैं वैसे ये सम्यक्त्व के अंग हैं, ये नहीं हों तो विकलांग होवे ।।७।।
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