Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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पं० दलसुख मालवणिया : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
-पं० रतिलाल देसाई
--अनु० डॉ० शिवप्रसाद; डॉ० अशोक सिंह सत्य के जिज्ञासु व्यक्ति का विद्वत्ता स्वयमेव वरण कर लेती है। ऐसा व्यक्ति ज्ञानोपासना की किसी भी दिशा में अग्रसर होकर उस क्षेत्र अथवा विषय का सर्वश्रेष्ठ विद्वान् बन जाता है। ऐसे व्यक्ति को किसी भी विद्यालय अथवा विश्वविद्यालय की किसी भी उपाधि की कोई आवश्यकता नहीं होती है । इस श्रेणी के विद्याविलासियों में पं० सुखलाल संघवी, पं० बेचरदास दोशी, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, मुनि जिनविजय जी, मुनि श्री पुण्यविजय जी, पं० दलसुखभाई मालवणिया आदि के नाम बड़े आदर पूर्वक लिये जा सकते हैं।
गुण ग्राह्यता तथा सत्यान्वेषी गहन साहित्योपासना इन दोनों दृष्टियों से पं० दलसुख भाई का जीवन एक आदर्श विद्या पुरुष का जीवन रहा है। उन्हें ये सद्गुण अपने पूज्य गुरु पं० सुखलाल संघवी और पं० बेचरदास दोशी से विरासत में मिले हैं । बंगाल संस्कृत परिषद, कलकत्ता से उन्होंने जैन दर्शन में न्यायतीर्थ की उपाधि प्राप्त की। यही उनकी प्रथम और अन्तिम उपाधि है । इन्होंने सम्पूर्ण जैन आगम साहित्य, जैन दार्शनिक साहित्य, बौद्ध दर्शन और साहित्य एवं अन्य भारतीय दर्शनों का सर्वांगीण अध्ययन एवं संशोधन कर विद्योपासना के प्रति निष्ठा का एक अनूठा आदर्श उपस्थित किया है।
श्री दलसुखभाई का जन्म गुजरात (सौराष्ट्र) के झालावाड़ जिलान्तर्गत सायला नामक ग्राम में २२-७-१९१० को एक निर्धन वणिक परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम डाह्याभाई और माता का नाम पार्वती बहन था। दलसुखभाई अपने माता-पिता की ज्येष्ठ सन्तान है । परिवार में ३ छोटे भाई और एक बहन भी थी। पिता श्री डाह्याभाई की गांव में ही एक छोटी सी पंसारी की दुकान थी। जिससे सात प्राणियों के इस परिवार का किसी प्रकार निर्वाह होता था । जब दलसुखभाई की उम्र १० वर्ष की थी, इनके पिता का आकस्मिक निधन हो गया। निर्धनता की विभीषिका से ग्रस्त यह परिवार इस भीषण दैवी आपदा से बिखर गया और दलसुखभाई अपने भाइयों के साथ सुरेन्द्रनगर के अनाथाश्रम में शरण लेने को बाध्य हो गये। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा यहीं सम्पन्न हुई। यहीं आपने अंग्रेजी भाषा का अभ्यास किया और अवकाश के क्षणों में यहाँ के पुस्तकालय का सदुपयोग करते हुये अपने ज्ञान को अभिवृद्ध करते रहे। इस अनाथाश्रम में दलसुखभाई ने सात वर्ष व्यतीत किये।
इसी समय श्री स्थानकवासी जैन कान्फ्रेन्स द्वारा जैन गृहस्थ पंडितों को तैयार करने हेतु एक ट्रेनिंग कालेज की बीकानेर में स्थापना की गयी। जयपुर निवासी दुर्लभ जी त्रिभुवन दास झवेरी इस कालेज के संस्थापक और संचालक थे । इस कालेज में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों को यहाँ नियमित रूप से तीन वर्ष तक रहना अनिवार्य था। उन्हें न केवल अध्ययन
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