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पर यदी वह सद्दृष्टि हो संयुक्त हो जिनमार्ग में । सद् आचरण से युक्त तो वह भी नहीं है पापमय ॥ २५ ॥ चित्तशुद्धी नहीं एवं शिथिलभाव स्वभाव से । मासिकधरम से चित्त शंकित रहे वंचित ध्यान से ||२६|| जलनिधि से पटशुद्धिवत जो अल्पग्राही साधु हैं । हैं सर्व दुख से मुक्त वे इच्छा रहित जो साधु हैं ॥ २७॥
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पर से भिन्नता का ज्ञान ही भेदविज्ञान है और पर से भिन्न निज चेतन भगवान आत्मा का जानना, मानना, अनुभव करना ही आत्मानुभूति है, आत्मसाधना है, आत्माराधना है। - बा.भा. अनुशीलन, पृष्ठ-६२
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