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जन्ममरणजरा चतुर्गतिगमन पापरु पुण्य सब। दोषोत्पादक कर्म नाशक ज्ञानमय अरिहंत हैं ।।३०।। गुणथान मार्गणथान जीवस्थान अर पर्याप्ति से। और प्राणों से करो अरहंत की स्थापना ||३१|| आठ प्रातिहार्य अरु चौंतीस अतिशय युक्त हों। सयोगकेवलि तेरवें गुणस्थान में अरहंत हों॥३२॥ गति इन्द्रिय कायरु योग वेद कसाय ज्ञानरु संयमा। दर्शलेश्या भव्य सम्यक् संजिना आहार हैं॥३३॥ आहार तन मन इन्द्रि श्वासोच्छ्वास भाषा छहों इन। पर्याप्तियों से सहित उत्तम देव ही अरहंत हैं॥३४।।
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