________________
निजदेह को निज - आतमा परदेह को पर- आतमा ।
ही जानकर ये मूढ़ सुत - दारादि में मोहित रहें ॥१०॥ कुज्ञान में रत और मिथ्याभाव से भावित श्रमण | मद-मोह से आच्छन्न भव-भव देह को ही चाहते ॥ ११ ॥ जो देह से निरपेक्ष निर्मम निरारंभी योगिजन । निर्द्वन्द रत निजभाव में वे ही श्रमण मुक्ति वरें ||१२|| परद्रव्य में रत बंधे और विरक्त शिवरमणी वरें । जिनदेव का उपदेश बंध- अबंध का संक्षेप में ||१३|| नियम से निज द्रव्य में रत श्रमण सम्यकवंत हैं । सम्यक्त्व - परिणत श्रमण ही क्षय करें करमानन्त हैं ||१४||
(८०)