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चारित्र ही निजधर्म है अर धर्म आत्मस्वभाव है । अनन्य निज परिणाम वह ही राग-द्वेष विहीन है ॥५०॥ फटिकमणिसम जीव शुध पर अन्य के संयोग से । वह अन्य - अन्य प्रतीत हो, पर मूलत: है अनन्य ही ॥ ५१ ॥ देव गुरु का भक्त अर अनुरक्त साधक वर्ग में । सम्यक्सहित निज ध्यानरत ही योगि हो इस जगत में ॥५२॥ उग्र तप तप अज्ञ भव-भव में न जितने क्षय करें । विज्ञ अन्तर्मुहूरत में कर्म उतने क्षय करें ||५३ || परद्रव्य में जो साधु करते राग शुभ के योग से । वे अज्ञ हैं पर विज्ञ राग नहीं करें परद्रव्य में ||५४ ||
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