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सब दोष विरहित देव अर हिंसारहित जिनधर्म में । निर्ग्रन्थ गुरु के वचन में श्रद्धान ही सम्यक्त्व है ॥१०॥ यथाजातस्वरूप संयत सर्व संग विमुक्त जो । पर की अपेक्षा रहित लिंग जो मानते समदृष्टि वे ॥९१।। जो लाज-भय से नमें कुत्सित लिंग कुत्सित देव को। और सेवें धर्म कुत्सित जीव मिथ्यादृष्टि वे॥९२।। अरे रागी देवता अर स्वपरपेक्षा लिंगधर । व असंयत की वंदना न करें सम्यग्दृष्टिजन ॥९३।। जिनदेव देशित धर्म की श्रद्धा करें सद्वृष्टिजन । विपरीतता धारण करें बस सभी मिथ्यादृष्टिजन ॥९४॥
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