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सम्यक् सुदर्शन ज्ञान तप समभाव सम्यक् आचरण । सब आतमा की अवस्थायें आत्मा ही है शरण ॥ १०५ ॥ जिनवर कथित यह मोक्षपाहुड जो पुरुष अति प्रीति से । अध्ययन करें भावें सुनें वे परमसुख को प्राप्त हों ॥ १०६ ॥ |
अनादिकाल से हमने देहादि परपदार्थों को अपना माना और निज भगवान आत्मा को अपना नहीं माना, पर न तो आजतक देहादि परपदार्थ अपने हुए और न भगवान आत्मा ही पराया हुआ ।
- गागर में सागर, पृष्ठ- २५
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