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अरे मिथ्यादृष्टिजन इस सुखरहित संसार में । प्रचुर जन्म-जरा-मरण के दुख हजारों भोगते ॥९५।। जानकर सम्यक्त्व के गुण-दोष मिथ्याभाव के । जो रुचे वह ही करो अधिक प्रलाप से है लाभ क्या ॥९॥ छोड़ा परिग्रह बाह्य मिथ्याभाव को नहिं छोड़ते । वे मौन ध्यान धरें परन्तु आतमा नहीं जानते ॥९७।। मूलगुण उच्छेद बाहा क्रिया करें जो साधुजन । हैं विराधक जिनलिंग के वे मुक्ति-सुख पाते नहीं ॥९८॥ आत्मज्ञान बिना विविध-विध विविध क्रिया-कलाप सब । और जप-तप पद्म-आसन क्या करेंगे आत्महित ॥९९॥
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