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मुक्त
हैं जो जितकषायी पाप के आरंभ से । परिषहजयी निर्ग्रथ वे ही मुक्तिमारग में कहे ||८०|| त्रैलोक में मेरा न कोई मैं अकेला आतमा । इस भावना से योगिजन पाते सदा सुख शास्वता ॥ ८१ ॥ जो ध्यानरत सुचरित्र एवं देव गुरु के भक्त हैं । संसार - देह विरक्त वे मुनि मुक्तिमारग में कहे ||८२|| निजद्रव्यरत यह आतमा ही योगि चारित्रवंत है ।
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यह ही बने परमातमा परमार्थनय का कथन यह ॥ ८३ ॥ ज्ञानदर्शनमय अवस्थित पुरुष के आकार में ध्याते सदा जो योगि वे ही पापहर निर्द्वन्द हैं ||८४||
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