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भावों निरन्तर बिना इसके चिन्तवन अर ध्यान के। जरा-मरण से रहित सुखमय मुक्ति की प्राप्ति नहीं॥११५॥ परिणाम से ही पाप सब अर पुण्य सब परिणाम से। यह जैनशासन में कहा बंधमोक्ष भी परिणाम से॥११६॥ जिनवच परान्मुख जीव यह मिथ्यात्व और कषाय से। ही बांधते हैं करम अशुभ असंयम से योग से ॥११७॥ भावशुद्धीवंत अर जिन-वचन अराधक जीव ही। हैं बाँधते शुभकर्म यह संक्षेप में बंधन-कथा।।११८।। अष्टकर्मों से बंधा हूँ अब इन्हें मैं दग्धकर। ज्ञानादिगुण की चेतना निज में अनंत प्रकट करूँ॥११९।।
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