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जो धीर हैं गम्भीर हैं जिन भावना से सहित हैं ।
वे ऋद्धियों में मुग्ध न हों अमर विद्याधरों की ।। १३० ।। इन ऋद्धियों से इसतरह निरपेक्ष हों जो मुनि धवल ।
क्यों अरे चाहें वे मुनी निस्सार नरसुर सुखों को ॥ १३१ ॥ करले भला तबतलक जबतक वृद्धपन आवे नहीं । अरे देह में न रोग हो बल इन्द्रियों का ना घटे ॥ १३२ ॥ छह काय की रक्षा करो षट् अनायतन को त्यागकर । और मन-वच - काय से तू ध्या सदा निज आतमा ॥ १३३॥ भवभ्रमण करते आजतक मन-वचन एवं काय से । दश प्राणों का भोजन किया निज पेट भरने के लिये ॥१३४॥
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