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असार है संसार सब यह जान उत्तम बोधि की । अविकार मन से भावना भा अरे दीक्षाकाल सम ॥ ११०॥ अंतरंग शुद्धिपूर्वक तू चतुर्विध द्रवलिंग धर । क्योंकि भाव बिना द्रवलिंग कार्यकारी है नहीं ॥ १११ ॥ आहार भय मैथुन परीग्रह चार संज्ञा धारकर । भ्रमा भववन में अनादिकाल से हो अन्य वश ।। ११२ ।। भावशुद्धिपूर्वक पूजादि लाभ न चाहकर । निज शक्ति से धारण करो आतपन आदि योग को ॥११३॥ प्रथम द्वितीय तृतीय एवं चतुर्थ पंचम तत्त्व की । आद्यन्तरहित त्रिवर्ग हर निज आत्मा की भावना ॥ ११४ ॥
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