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परिणामशुद्धि के बिना यदि परीग्रह सब छोड़ दें। तब भी अरे निज आत्महित का लाभ कुछ होगा नहीं॥५॥ प्रथम जानो भाव को तुम भाव बिन द्रवलिंग से। तो लाभ कुछ होता नहीं पथ प्राप्त हो पुरुषार्थ से॥६॥ भाव बिन द्रवलिंग अगणित धरे काल अनादि से। पर आजतक हे आत्मन् ! सुख रंच भी पाया नहीं॥७॥ भीषण नरक तिर्यंच नर अर देवगति में भ्रमण कर। पाये अनन्ते दुःख अब भावो जिनेश्वर भावना ॥८॥ इन सात नरकों में सतत चिरकाल तक हे आत्मन्। दारुण भयंकर अर असह्य महान दुःख तूने सहे॥९॥
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