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तेरह क्रिया तप वार विध भा विविध मनवचकाय से ।
हे मुनिप्रवर ! मन मत्त गज वश करो अंकुश ज्ञान से ॥८०॥ वस्त्र विरहित क्षिति शयन भिक्षा असन संयम सहित । जिन लिंग निर्मल भाव भावित भावना परिशुद्ध है ॥८१॥ ज्यों श्रेष्ठ चंदन वृक्ष में हीरा रतन में श्रेष्ठ है । त्यों धर्म में भवभाविनाशक एक ही जिनधर्म है ॥८२॥ व्रत सहित पूजा आदि सब जिनधर्म में सत्कर्म हैं। दृगमोह - क्षोभ विहीन निज परिणाम आतमधर्म है ॥ ८३ ॥ अर पुण्य भी है धर्म - ऐसा जान जो श्रद्धा करें । वे भोग की प्राप्ति करें पर कर्म क्षय न कर सकें ॥ ८४ ॥
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